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"BIKHRE SHUN"
   
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(1) Dincharya 1 (१) दिनचर्या १
 
written by
Ashwani Kapoor



 
दिनचर्या १
 

खन्ना शहर की अनाज मंडी| मुख्य सडक के किनारे दुकानों की एक लम्बी कतार | कोई बडी, कोई छोटी | किसी में हजारों का व्यापार होता है तो कहीं सिर्फा एक्-दो का| कहीं बहुत सरगर्मी रहती है  . . . . हर समय भाव तोल होता रहता है, तो कहीं मालिक दुकान की गद्धी पर अपने फुटकर ग्राहकों की प्रतीक्षा मे आँखे बिछाये अपने मस्तिष्क में कुछ और नहीं तो अपने ही जीवन की कडियों को निरन्तर जोडता-तोडता रहता है | तेजी से आगे बढते जमाने के पहियों के साथ वह अब चल नही पाता, चलना ही नही चाहता उस रफतार से जो अपने पराये मे कुछ भेद ना करे | शोर ने दुनिया को किस कदर जकड रखा है, उसे यह जानने की परवाह नहीं| अपनी ही कोई चिंता है उसके पास, जिसे वह दुनिया की ढेर-सी चिंताओ के साथ मिलाना नहीं चाहता! अपनी छोटी सी दुनिया में खोकर ही शायद वही आनन्द पा लेता है, जो दूसरे हजारों लाखों के चक्कर में आठों पहर खोकर मुश्किल से प्राप्त कर पाते हैं , शायद करते भी नहीं | तभी तो आगे बढते जमाने के कहा कुचले जा रहे हैं, किसकी उमंगो की हत्या हो गयी है, किसकी दुनिया वीरान हो गयी है और् जो आगे-ही-आगे भागे जा रहा है, उपर-ही-उपर उठकर मस्त हो गया है -ऐसा कुछ जानने की, अपनी राह पर चलते हुए दूसरे किसी की कुछ बात जानने की शायद उसकी लालसा नहीं |
वह योजनाएँ नहीं बनाता, आकाश-कुसुम तोड लाने के सपने नहीं लेता | उसने अपना चैन कहीं किसी ताक पर नहीं रख छोडा| उसके जीवन में शांति है | अपना छोटा-सा संसार है उसका| उसकी देखभाल इतने से ही हो जाती है, तब और चिंता क्या?
इस मंडी में ही है ऐसा एक दुकानदार-साधूराम | सत्तर बरस का बूढा | हडिडयों में उसकी अब दम नही रहा | आँखो की रोशनी इतनी कम कि जरा-सा अंधेरा पडते ही टटोल-टटोल कर चलना पडता है |मुहँ में उसके दाँत नहीं है, चेहरे पर अनेक झुर्रियाँ हैं और बायीं बाजू का स्थान पूर्णतया, रिक्त, जिसे देखकर खाली क्षणों में अक्सर उसे अपना कब्र का बीत चुका बचपन स्मरण हो आता है | ऐसा है वह | लेकिन तब भी जुटा हुआ है अपने काम में | कुछ कर रहा है अभी तक इतना कि उसका छोटा-सा संसार किसी दूसरे पर बोझ नहीं|

"बाबा….|" किसी ग्राहक का स्वर है यह| तल्लीनता भंग हुई उसकी और पूछा शांत भाव से ही " क्या चाहिए, बेटा ।।।|"

"एक चक्की नहाने का साबुन….|"
गद्धी से उठकर साधूराम ने उसे साबुन थमा दिया | ग्राहक पैसे देकर चला गया | वह पुन: अपनी गद्धी पर आकर बैठ गया | तभी दूसरे ग्राहक ने दुकान में प्रवेश किया और पूछा
- "बाबा, घी होगा…..?"
"नहीं बेटा, घी नही है   |"
"कहीं भी नहीं मिल रहा, न जाने क्या हो रहा है, खपत के हिसाब से माल नहीं    "
-ग्राहक के चेहरे पर असन्तुष्टि के भाव हैं |

" जो भी हो रहा है, बेटा, शायद इसी में कुछ भला है |" -साधूराम के स्वर में स्थिरता है |
"इसमें क्या भला होगा बाबा, हर चीज को तरसना पड रहा है | शायद समय शीघ्र ही आएगा जब चीज अपनी दुर्लभता के कारण आम आदमीसे दूर हो जाएगी | हम जैसे छूत के रोगी बन जाएँगे |"
"चलो छोडो बाबा, चावल हैं क्या    ?" - ग्राहक ने दूसरा प्रश्न किया |
" हैं…..बासमती हैं |"
"कैसे दिये…..?"
"छ: रुपये किलो….|"
"मँहगे बता रहे हो, ठीक-ठीक लगाओ|"
"बाजार-भाव है, बेटा |" - साधूराम ने नम्रतापूर्वक कहा |
"वह तो नाम का होता है| पाँच लगाओ |"
"नहीं….., चाहो तो लो, छ: ही लगेंगे |"
"साढे पाँच लगाओ तो आधा किलो दे दो |"
"नहीं….." - उसी नम्रता से साधूराम ने इन्कार कर दिया| लेकिन जैसे ही ग्राहक जाने के लिये मुडा कि साधूराम से निकल गया-" अच्छा, ले जाओ….., लेकिन बेटा, सच बात ये है कि साढे पाँच लगाकर तो मेरा घर भी नहीं पूरा पडता| खैर…….तुम्हें नाराज नहीं करना मुझे |"
ग्राहक ने चावल लिए और पैसे देकर चलता बना | साधूराम दुकान पर फिर अकेला रह गया| चुपचाप सामने की ओर आँखे टिका कर कुछ सोचने लगा | ग्राहक के होते उसके मुख पर जो सामान्य-भाव थे, वे धीरे-धीरे छिपने लगे | धीरे-धीरे उसका मस्तिष्क अपने विचारों में उतरने लगा| उसकी आँखो में बहुत भीतर से नया भाव उमड आया| कोई ग्राहक यदि देखता तो उसे आश्चर्या होता | दुकान पर बैठे साधूराम की आँखो में निरीह भाव उमड आए थे| एक प्यास सी उभर आई थी| मुख-मंडल भाव-विहीन होने लगा था और कहीं से उस पर निराशा उभर आई थी |
ऐसा क्या है यहाँ जिसका आभास पाकर मन एकाएक बदल जाता है? ये आगे बढता जीवन, आता-बीतता हर क्षण- सभी तो सामान्य जान पडता है| जो भी कुछ घटित होता है जीवन में, चर्या  समझ कर अपना लेते हैं और आगे की ओर देखने लगते हैं| निरन्तर आगे देखना शायद मन का गुण है- वह सोचता रहता है कुछ न कुछ निरन्तर | जीवन-क्रम में सब कुछ इस तरह घुल-मिल चुका है कि कभी महसूस नहीं होता कुछ कहीं किसी ने भीतर नया सोचा है| नया स्वयं अपने लिए तो कहीं नहीं| अपने अनुभव कल किसी की प्रेरणा बनते हैं और फिर जन्म होता है एक नये अनुभव का| यूँ ही एक चक्र चलता है| तब नया किसे प्रतीत होगा| चर्या तो स्वयं ही बन जाती है, सीढी-दर-सीढी विकास के साथ | ऐसे ही में मन जब भटक कर कहीं ओर चला जाता है, तब आने वाला हर क्षण सर्वथा नवीन जान पडता है और तभी तो मन की यह भटकन जिन्दगी के आम शब्दों के भाव भुला देती है…..
तभी तो….. दूर कहीं से घंटे के झनझनाते स्वर के साथ उठ रही, " राम-राम सत्य है|" की आवाज ने उसे चौंका दिया| शायद अविश्वसनीय जान पडे ये शब्द उसे | झट से उठ बैठा| झाँककर दुकान से बाहर, सामने सडक की दाहिनी ओर द्रिश्ति डाली| देखी, एक अर्थी, सफेद कपडे में लिपटी | …… 'किसी की आँख का तारा डूबा……| ……ह-आ……|' - एक भय की लहर उसके सम्पूर्ण अस्तित्व को झकझोर गई| घंटे पर पडती हथौडे की चोट उसे अपने मस्तिष्क पर पडती प्रतीत हुई| एकाएक उसे अपना बदन टूटता महसूस हुआ |
दूर कहीं, उसकी आँखे प्रत्यक्ष में जहाँ देख भी न सकती हैं, एक यादों का बवंडर उठता महसूस हो रहा था उसे| आगे-आगे रोता-बिलखता साधूराम, उस्के पीछे एक अर्थी......चार आदमियों के कँधो पर लदी......, और पीछे चंद लोगों का शोकपूर्ण समूह गर्दन झुकाए चलता.....  
एक यही तो ऐसी निष्ठुर घडी है, जो अक्सर उसे याद हेता आती है| एक फूल रूठ कर किसी के मन को महकाने लगा और दूसरा ऐसी ही एक अर्थी में लदकर कहीं दूर चला गया, जहाँ शायद साधूरम समय आने से पहले पहुँच ही नहीं सकता.....| लेकिन यह 'मौत' शब्द की झलक उसके मानस-पटल से अपनी छाया हटाती ही नहीं जैसे | कोई हथौडे की मार जैसे चिल्लाता प्रतीत होता है --- 'मौत..... मौत....|"  - और उसे महसूस होता है कोई निष्क्रिय हो गया है | समय रूक गया है | दूर उसकी आँखे देखती है किसी आक्रति को धुंध में विलीन होते | कोई हँसता-खेलता जीवन अपनी माँ की गोद में सिर रखे निर्जीव होते | एक शून्य की झलक जैसे उसकी ठहरी आँखो में घूमने लगती है |
दुकान के बिल्कुल सामने चार व्यक्तियों के कंधे पर लदी एक अर्थी और उसके पीछे बीस-पच्चीस व्यक्ति, 'राम-नाम सत्य है |'  कहते द्रष्टिगत हो रहे थे | साधूरम दुकान की गद्धी पर बैठा, चुपचाप, एकाएक उस अर्थी को जाते देख रहा था | उसकी शांत-उदास द्रष्टि, भय की चोट खाने के बाद अब मानस-पटल पर यंत्र-तंत्र बिखरे शब्दों को चुन रही थी और वे शब्द एकरूप होकर उसके कानों में गूँज रहे थे | जग की तराजू के एक पलडे में वह स्वयं बैठा था और दूसरे पलडे में उसे मौत बैठी दिख रही थी, और उसकी शांत-उदास द्रष्ति देख रही थी कि कौन भारी है .....
- कौन     ?
- वह कि मौत    ?
- और एक गूँज-सी उठती प्रतीत हुई उसे -मौत    |

एक क्षण के लिए काँप उठा उसका सम्पूर्ण अस्तित्व   | मरने की बात पर जब-जब वह डरता है, राजा की मोटर के पहियें से कुचली वह डरावनी सूरत उसे याद आकर एक सच्चाई का अहसास करवाती है | दो मिनट पहले उससे हँसते हुए बतिया कर जो राजा गया था, वह लौट कर फिर हँस नहीं सका | वह न पिता को 'बाबू जी' कह सका था, ना मैँ को मैँ | एक निर्जीव-सा शरीर लौटा था, मुँह के चिथडे उडे हुए थे जिसके | और तब साधूराम रो भी न सका था | जड हो गया था | और शांति- वह दो दिन तो आँखे भी न खोल सकी थी |

दोनों की जडता टूटी थी सतीश को देखकर | राजा नहीं रहा, वह तो है  |    वह दोनों जब नन्हे-नन्हे बालक थे, आँगन में उनकी किलकारियाँ | नए-नए स्वप्न महल बनाती गूँजती थी | कोमल हँसी उनकी आँगन में गूँजती कभी इस बात का अहसास भी न करवाती थीं कि कभी अकेलापन भी आएगा उनके जीवन में | लेकिन समय को कुछ और ही मंजूर था शायद | राजा इस दुनिया को छोड कर चला गया था और सतीश, जो अब उनका एकमात्र सहारा रह गया था, समय के साथ-साथ अपने विचार-प्रवाह को बदलता गया | अपने हुम उम्र भाई राजा की मौत के समय उसने प्रण किया था कि वह अपने माँ-बाप कों कभी अपने भाई की कमी महसूस नहीं होने देगा | लेकिन समय के थोडा आगे बढते ही उसी सतीश ने अपने माँ-बाप की आशाओं-आकांक्षाओं के सभी महल गिराने शुरु कर दिये  | माँ-बाप से उसे अपना रिश्ता केवल भावनाओं का प्रतीत हुआ | शायद वह सोचने लगा था कि उसके माँ-बाप उसके व्यावहारिक-जीवन में कहीं स्थान नहीं रख्ते ; केवल उसकी भावनाएँ जब-जब आतीं, माँ-बाप के प्रति एक कर्तव्य का उसे अहसास होने लगता| उसी के वशीभूत होकर वह उनसे बार-बार आग्रह करता अपने बडे शहर में आकर बस जाने का    , अपने उस छोटे-से शहर को भूल जाने का जिसमें पलकर न केवल साधूराम बडा हुआ, बल्कि जहाँ साधूराम-शांति के सभी स्वप्न उभरे-खिले-फूले और जहाँ से निकलकर सतीश बडे शहर के योग्य बना | लेकिन सतीश को क्या मालूम था कि एक घर जो बहुत पुराना हो गया हो, जकड लेता है व्यक्ति को अपनी हर दीवाल के अंधेरें में | घर की हर दीवाल सफेदी की हर पर्त पर कई यादों के चित्र लिए होती है | हर-गली-मौहल्ले में, हर कहीं कोई अपना छिपा महसूस होता है- जो रोकता है मन में उभर-उभर कर दूर जाने से | और जब-जब कोई हठीला प्रयत्न करता है भावनाओं ज्तमितपदज मततचजमकार जाती है | लेकिन सतीश इस बात को नहीं जानता था, इसलिए उसकी विचारधारा भला अपनी इच्छा के विपरीत कैसे बहती ?
बहुत-सी आशाएँ जब टूट गई, सभी इच्छाओं का उनकी जब गला घोंट दिया गया, तो साधूराम शांत न रह सका| फूट पडा उसके मन में कई बरसों से पलता आक्रोश| भावनाएँ दब गई उसके नीचे और अहम की एक दीवाल चुन दी गई - बाप-बेटे के बीच, माँ और उसकी ममता के बीच| लेकिन माँ बेचारी निरन्तर चेष्ठा करती है, उचक-उचक कर दीवाल के उस पार देखने की; लेकिन अविरल बहती आँसूओं की धार अब नहीं तोड पाई उसको | साधूराम का निश्चय भी अब डिग गया है | रोता है वह भी कभी-कभी| लेकिन आँसूओं का कोई मूल्य नहीं रहा, वह पावन-भूमि में मिलकर भी असफल.....
- "असफल    ? "

स्वयं से ही उसका एक प्रश्न | इन प्रश्नों के दौर में वह जो कुछ भी सोच रहा था, वह सब पुरानें दर्दों के परिणाम स्वरूप था| न उसे वह दर्द मिलते, न उसकी आकाँक्षाओं पर कुठाराघात होता और न वह आज अर्थी को देखकर इतना सोचता……
- 'मरने पर चाहिए अर्थी……|'
- 'अर्थी के लिए चाहिए कंधा किसी अपने का……|'
- 'चिता मे अग्नि भी तो अपना ही लगाता है…….|'
- मैं मर जाऊँ, मेरा अपना ऐसा कौन जो मुझे कंधा दे सके, मेरी चित को अग्नि दे सके……?'
- मेरा अपना, मेरा सतीश    मेरा   | लेकिन कहाँ है वह     ? मुझ्से दूर, अपनी नयी दुनिया में लीन……|'

चक्षु क्षेत्र में जमें बर्फ के टुकडे आन्तरिक उश्मा का आभास पाकर पिघलने लगे | पानी धारा बनकर प्रवाहित हो उठा| मन पहले से ही रो रहा था, आँखे भी रोने लगी थी | भूल चुका था कि वह इस समय दुकान पर बैठा है| बहती आँखो से छत को घूर रहा था, तभी एक स्वर…..
" बाबा   |" - दुकान पर आए एक ग्राहक ने उसे पुकारा| उसे अपनी स्थिति का एहसास हुआ| आँखों की नमी आस्तीन से साफ कर उसने ग्राहक की ओर प्रश्नवाचक-मुद्रा में देखा| ग्राहक ने उसकी आँखो से निकलते आँसू देख लिए थे| वह साधूराम की ओर दयापूर्ण द्रष्टि से देख रहा था| 
"क्या हुआ, बाबा ? रो क्यों रहे थे?"  - ग्राहक का स्वर भी साहनुभूतिपूर्ण था|
"कुछ भी तो नही, बेटा, बस यूँ ही बह निकले थे………, एकान्त में अक्सर मनुष्य हँस-रो देता है| …….   खैर, छोडो इसे, तुम्हे क्या चाहिए ?"
ग्राहक ने और कुछ पूछना व्यर्थ समझा| अपनी आवश्यकता की वस्तु उसे थमाकर पैसे ले लिये| ग्राहक चला गया |
……..ग्राहक के जाते ही साधूराम दुकान पर अकेला रह गया | मन उसका पुन: विचारलोक में जा पहुँचा | साधूराम ने कभी सोचा भी न था कि इस बूढी उम्र में भी उसे दुकान करनी पडेगी| सतीश के शिक्षण काल में उसने अपने सुन्दर भविष्य की कल्पनाएँ की थी | अक्सर वह शांति से कहा करता था - "बहुत कुच देखा इस जीवन में,शांति, बस अब मुक्ति मिलेगी झंझटों से | कठिनाईयों से किनारा कर शीघ्र ही हम चैन की वंशी बजाएँगे | शांति | सतीश अगले ही वर्ष इन्जिनीयर बन जाएगा |" - मगर उस अतीत का भविष्य जब उसके सम्मुख वर्तमान बन आ खडा हुआ तो उसे निराश हो जाना पडा| उसने स्वयं को 'दुर्भाग्यशाली' कह दिया |

साधूराम स्वयं को दुर्भाग्यशाली समझता है, स्वयं को दुर्भाग्यशाली कहता है, केवल इसलिए कि उसका आत्मज सतीश उसे विस्म्रत किए बैठा है…….
"दुर्भाग्याशाली    |" - साधूराम के मुख से निकला और आश्रुकण पुन: प्रवाहित हो उठे | सतीश का चित्र उसकी आँखो के सम्मुख तैर रहा था| उसी को निहारते साधूराम आँसू बहा रहा था……..
…..समय का उसे पता ही न रहा | आसूँ कब थम गए उसे यह भी ज्ञात नहीं था | वह् गुम-सुम बैठा था | मन उसका कहीं बहुत पीछे जाकर अतीत में बैठा था, उसे क्या मालूम कि उसका साधूराम दुकान पर कैसे बैठा है | क्या कर रहा है | अपनी व्यथा में भला कौन दूसरे की सुन सकता है | अपना दर्द बाँटने की पडी है मन को, उसका दर्द लेने की नहीं…..|
मानस पटल पर कुछ द्रिश्य उभरने लगे थे | कुछ खुशियाँ थी, जिनकी झलक देखने को अब वह तरसता है | कुछ अरमान थे जो तब पूरे हुए थे | लेकिन त्यौहार-से मानकर बिताते उन दिनों की छाया अभी हटी भी न थी कि एकाएक कच्चे पुल की भाँति सब कुछ ढहना शुरु हो गया | लेकिन एक याद जो अक्सर मन में घुमड आती है, उससे तो वह पीछा छुडा नहीं पाता | छुडाना भी तो नहीं चाहता, बहुत लगाव है उन क्षणों से उसे | उदासी में वे क्षण स्मरण हो आते हैं| ऐसा ही मन आज हुआ पडा था उसका | दूर पन्द्रह बरस पहले के कुछ क्षण स्मरण हो आए थे उसे |
…..दोपहर के दो बज रहे थे | दोपहर का खाना समाप्त कर वह दुकान की गद्धी पर लेटा आराम कर रहा था | इस वक्त कोई भूला-भटका ग्राहक ही दुकान पर आता है, इसीलिए शायद बेफिक्र हो उसने आँखे बंद कर रखी थी| तभी तार वाले ने आकर उसे पुकारा - " ए बाबा | साधूराम कपूर् तुम्हारा ही नाम है क्या……?"
अपना नाम सुनकर उसने झट से आँखे खोली | तार वाले को सामने देखकर उठते हुए बोला - "हाँ, मेरा ही नाम है| कहो, क्या बात है ?"
"तार है तुम्हारे नाम दिल्ली से   |" - डाकिये ने कहा |
"तार…….| किसने भेजा है…….? " - और तभी उसे ध्यान आया जैसे - "अरे ……., सतीश की होगी| नौकरी लग गई होगी उसकी…….| क्यों ? …….जरा पढो, भैया, क्या लिखा है उसने…….|"  -साधूराम का ह्रदय तेजी से धडकने लगा था | तभी डाकिये ने उससे तार पढकर कहा - "हाँ बाबा, तुम्हारा बेटा अफसर लग गया है दिल्ली में…….|"
खबर सुनकर साधूराम का सम्पूर्ण अस्तित्व काँपने लगा - "हाँ-हाँ, अफसर ही लगा होगा | …….अरे | भगवान तुझे भी ऐसा ही दिन बार-बार दिखाये | तूने आज मुझे बहुत बडी खबर सुनाई है, मेरे सारे अरमान इसी खबर पर टिके थे…….|"
" हाँ हाँ, जरूर| मुँह अपना भी मीठा करो और अपने बच्चों का भी कराओ | ये लो…. |" -यह कहते हुए साधूराम ने खुशी से कंपकपाते हाथ से गल्ले में से दो रूपये का नोट निकाल कर उसे थमा दिया | नोट लेकर सलाम करता हुआ तार वाला दुकान से उतर गया |
साधूराम इतना खुश था कि और नहीं बैठा जा रहा था उससे दुकान पर | खुशी के मारे वह पगला गया था | जल्दी-जल्दी उसने दुकान का सामान समेटा और दुकान बंद करके घर की ओर चल पडा | राह चलते उसे जो भी जानकार मिलता, स्वयं उसे रोककर कहता - "सुनो भाई, मेरा बेटा बडा अफसर लग गया है दिल्ली में……., हाँ, अभी-अभी तार आई है उसकी, ये देखो| " - और वह हाथ में पकडी तार उसे दिखाता |
"बधाई हो, अब मुँह मीठा कराओ  |"
"हाँ-हाँ, क्यों नहीं, घर आना …….|" - और तेजी से साधूराम घर की ओर बढने लगता |
गली के किनारे से ही उसने शांति को पुकारना शुरु कर दिया – शांति…..| ओ शाँति …… | सुनती हो……, देखो, सतीश की तार आई है……,नौकरी लग गई है उसकी …….|" - और शांति के बाहर निकलने से पहले मौहल्ले के लोग बाहर निकल आए | सभी बधाई देने लगे-साधूराम-शांति को | साधूराम की खुशी जैसे उसकी जुबान शांत ही नहीं कर पा रही थी – “अरे | अफसर लगा है, अफसर …… |"
और तब तक शांति बाजार से मिठाई मंगवा चुकी थी, पडौस के एक लडके को भेजकर……. |
उस रात साधूराम की आँख लगने को नहीं आ रही थी | बिस्तर पर लेटे-लेटे वह अपने घर की दीवालों को घूर रहा था | दीवालों का पलस्तर झड रहा था | सफेदी पर कालिख जमीं हुई थी ; आज उसे अपने घर का यह रूप अखर रहा था | अफसर  के बाप का घर और ऐसा | हैं -ह   | आज से पहले यही उसे भाता था, इन दीवालों की हालत देखकर वह अपने संघर्षमयी क्षणों की याद किया करता था | सतीश को ऊँचा बनाने के लिए ही तो यह पलस्तर ठीक नहीं हो पाया, दस बरस सफेदी नहीं हो पाई | छुट्टी के दिनों में सतीश घर आने पर कहा करता था“बाबूजी | इन दीवालों का पलस्तर ठीक करवा लीजिए अब, बहुत खाराब लगता है | सफेदी भी कितनी खराब हो चुकी है ……..|"

" तब साधूराम उससे कहा करता- "तुम्हीं ही करवाना ठीक अपनी नौकरी लगने पर| अभी नहीं जरुरत इसकी | तुम अफसर बन जाओ, यह घर भी अफसर जैसा बनवा लेना..…..|"
तब सतीश कहा करता- "तब बाबूजी बंगले में रहेंगे, इस हर में नहीं | खुलकर हवा भी नहीं आती यहाँ…….|" - सतीश भी अपने भविष्य की सुखद कल्पनाएँ करने लगा करता था ऐसे में |
" ऐसा मत कहो, बेटा, इस घर को छोडना मेरे लिए संभव नहीं……. और तुम्हारा भी तो बचपन इस घर में बीता है……|"
बोलता नहीं था उस समय सतीश, चुप हो जाता था | वह अपने पिता के सामने आधिक मुँह नहीं खोलता था | जानता था उसके पिता कितना संघर्ष कर रहे हैं उसे पढाने के लिए |
आज साधूराम वही सोच रहा था | इस घर को नया बनाने का | शांति को सम्बोधित करते हुए बोला - "शांति……| सो गई क्या……..?"
शांति अभी अर्द्धनिंद्रा में थी | उसने सुना साधूराम उसे पुकार रहा है | लेकिन नींद की खुमारी में बोली - "हूँ……..| क्या है………?"
"………. अब सतीश को कहूँगा इस घर की काया पलट दे | …… दीवालों का पलस्तर भी करवा दे और रंग-रोगन भी | ……. देखो न, कितना गंदला हुआ पडा है सारा घर…… |"  - कुछ क्षण चुपचाप देखता रहा छत की तरफ, फिर बोला- "……….पर अब सारा घर चमक उठेगा……..|"
लेकिन शांति थी कि दो शब्द सुन पाई थी और चार उसके कान में ही न पडे थे| वह 'हूं-ह' कह पासा पलट कर सोने की चेष्टा करने लगी |
कुछ क्षण पश्चात एक नई बात उठी उसके मन में, तब बोला-" और शांति, अब तुम कुछ गहने भी बनवा लेना   , खाली हाथ बहुत बुरा लगता है जब किसी के घर आना-जाना पडता है |   कह दूँगा सतीश से, सबसे पहले य्ही काम करे| तुमने उसकी पढाई में ही तो सब कुछ बेच डाला    | "
और शांति फिर भी 'हूँ-ह' कहकर कहीं और खो गई |
"     और हाँ, शांति, हम उसकी पहली तनख्वाह से तीर्थ-यात्रा करने जाएंगे - हरिद्वार-काशी जी और   |"
तब तक शांति सब समझ गई थी, जो कुछ अब तक साधूराम कल्पना करके उससे कह रहा था| बिस्तर पर बैठते बोली- "क्या कुछ करोगे तुम उसकी तनख्वाह से - घर भी बनवा लोगे, मेरे गहने भी खरीदोगे और तीर्थ पर भी जाओगे……. |"
तब साधूराम ने कहा- "अरे तुम क्या समझती हो, क्या सौ-दो सौ की नौकरी लगी है उसकी, जो इतना कुछ न कर सकूँगा………| जानती हो हजार-बारह सौ  रुपए तनख्वाह होगी उसकी | सब कुछ हो जाएगा आसानी से, तुम देखती रहो……. |"  
महीना खुशी-खुशी बीत गया | दोनों बडी उत्सुक्ता से उस घडी का इतंजार कर रहे थे, जब सतीश अपनी तनख्वाह उन्हें भेजता और वे तीर्थ यात्रा पर निकलते | अपने इस इरादे के विषय में अपने पत्र में कोइ जिक्र नहीं किया था | उसे विश्वास था कि सतीश तनख्वाह मिलते ही अपने खर्चे के लिए रुपए रख कर बाकी पैसे उन्हें भेज देगा |
महीने से दस दिन उपर हो चुके थे | उसका न तो मनीआर्डर आया और न कोई चिटठी | साधूराम-शांति, दोनों चिंतामग्न हो उठे | राते के समय साधूराम ने खाना खा चुकने उपरान्त आँगन में बिछी खाट पर बैठते हुए शांति से कहा- "शांति | न जाने क्या बात है, न तो चिटठी आई और न और कुछ……..|" -साधूराम के स्वर में उदासी थी | साथ ही न जाने क्यों उसे सतीश के प्रति निराशा-सी महसूस हो रही थी | तब शांति ने कहा- "भगवान भला करे, कहीं बीमार न हो गया हो…….|….. " - शांति ने अपनी आशंका प्रकट की |
"बीमार हो गया होता तो खबर जरूर कर देता | जब पढता था, तब भी तो एक दफा बीमार पडने पर खबर करवा दी थी उसने   |" - साधू राम ने अपनी बात कही |
"भगवान जाने   | कल का दिन और देख लो, फिर तार दे दे देना  | " - शांति ने कहकर बत्ती बंद कर दी और दोनों सोने की चेष्टा करने लगे |
अगले दिन शांति को अपना ह्रदय न जाने क्यों धडकता महसूस हो रहा था | कहीं कोई डर उसके भीतर उभर कर उसे डरा रहा था | बुरी-बुरी बातें उसके मस्तिष्क में घूम रही थीं |
दोपहर बारह बजे के लगभग दरवाजे पर थपथपाहट हुई और पट से दरवाजे के खुलते ही एक पत्र अन्दर आन गिरा | डाकिया था बाहर | शांति तेजी से पत्र की ओर लपकी | खोलकर जल्दी-जल्दी पढने लगी | सतीश का ही पत्र था उसका ही नाम लिखा था -
"मेरी प्यारी माँ,
सादर प्रणाम |
मैँ पिछले कई दिनों से तुम्हें पत्र लिखने की सोच रहा था, कुछ कहना चाहता था तुमसे, लेकिन हिचक उठता था और मेरी कलम रूक जाती थी | लिखने की सारी चाह कुछ अटपटा सोचकर दब-सी जाती थी | लेकिन फिर सोचा ऐसा कब तक करूँगा| और अब दिलासा दिया है मैंने स्वयं को कई दिनों के उपरान्त……
हाँ | माँ | तुम्हारे और बाबूजी के लिए इससे बडी खुशी क्या हो सकती थी कि मैं पढ-लिख कर बडा अफसर बनूँ और मेरी किसी अच्छी-सी, पढी-लिखी लडकी के साथ शादी हो | और माँ, आपका वह सपना सच हो गया | मैं बडा अफसर बन गया और……… , हाँ माँ, मैं जो खुशी तुम्हें लिख रहा हूँ उससे पहले आपसे माफी माँगना चाहता हूँ | मै अपने इरादे के विषय में आपको पहले नहीं लिख सका और न ही आपकी इजाजत ले सका | बात ही कुछ ऐसी हो गई थी कि मुझे बिना एक क्षण बर्बाद किए वह फैसला करना पडा, जिसे शायद आप दोनों करते तो शायद मुझे और खुशी होती………
हाँ माँ, मैंने पिछले मंलवार को शादी कर ली है, अपने चीफ साहब की लडकी के साथ| मैं और इस विषय में आपको क्या लिखूँ | यह सब भी बहुत डर-डर कर लिख रहा हूँ | लेकिन मुझे आशा है आप नाराज न होंगी और पत्र मिलते ही बाबूजी के सथ दिल्ली आ जाएंगी |
बाबूजी को मेरा प्रणाम कहें |
तुम्हारा बेटा
सतीश |"
सतीश का पत्र पढकर शांति को लगा उसके आसपास पडी हर चीज घूमने लगी है | उसे अपने पैरों पर खडा रहना भी दुर्भर महसूस होने लगा| मस्तिष्क उसे एकाएक निष्क्रिय होता जान पडा| कुछ सोचने की शक्ति जैसे उसमें से समाप्त हो गई हो | मूक प्राणी की भांति बैठी शून्य में ताक रही थी |
-"ये क्या हो गया| ये उसने एकाएक क्या कर डाला | हमारे सभी अरमान इन दो शब्दों की इस चिटठी ने कहीं दूर उडा कर धूल में मिला दिए| कुछ अपना नहीं रहा अब ऐसा लगता है……. |"
दिन भर वह यूँ ही गुम-सुम बैठी रही| खाना खा लेने का भी उसका जी न हुआ| आँसू आ-आ कर उसके गालों को सहलाते रहे | और कभी जैसे कहीं कुछ भी शेष न बचा हो, एक बावली की भांति स्वयं से ही बतियाने लगती|
ऐसे ही शाम हो गई| सात बजते ही साधू राम दुकान से घर लौट आया| घर में आज उसे अन्य दिनों से अलग एक अजीब-सा सूनापन प्रतीत हुआ| शांति ने बत्ती भी नहीं जलाई थी| भीतर-बाहर हर कहीं अंधेरा था| किसी अज्ञात आशंका से उसका ह्रदय धडकने लगा |
"शांति कहाँ हो ?" -  भीतर आते ही साधू राम ने कहा - " अधंरा क्यों कर रखा है …….?"
शांति को जैसे अपनी सुध लौटी| निराशा से डूबे स्वर में बोली- "जिनका जीवन ही अधेंरे में डूब गया हो, उन्हें रोशनी कर क्या मिलेगा …….?"
"ये तुम क्या कह रही हो,शांति | कैसी बातें कर रही हो ?" - साधू राम कुछ घबरा उठा | जल्दी से आगे बढकर उसने बत्ती जला दी| दुबारा पूछा- "क्या बात है……. ?"  
"सतीश की चिटठी आई है……|" -आगे कुछ न बोली, जैसे साधूराम अन्दाज लगा लेगा कि उसने क्या लिखा है|
"क्या लिखा है उसने…….?" - साधूराम ने उत्सुकतावश पूछा |
"………. " - प्रत्युत्तर में दो आँसू टपक पडे शांति की आँखो से |
"तुम रो क्यों रही हो, मुझे बताओ |……. चिटठी कहाँ है ? " - साधूराम की घबराहाट पल-प्रतिपल बढती जा रही थी| शांति ने उसे अपने हाथ में पकडी चिटठी थमा दी | साधूराम एक ही साँस में सब पढ गया | जैसे कुछ समझ आया, कुछ नहीं; संशय भरे स्वर में बोला- क्या लिखता है शादी कर ली, शांति…..?" - उल्टे उसने शांति से पूछा - " ये क्या लिखा है उसने, शांति, कहीं पागल तो नहीं हो गया तुम्हारा बेटा; कहीं शादी ऐसे भी होती है……… |"
………एकाएक वह जोर से हँसने लगा | तब शांति की रुलाई रूक गई| वह आश्चर्यचकित द्रष्टि से अपने पति की और देखने लगी |
-"शांति | मैं भी कितना पागल हूँ जो समझा नहीं कि सतीश की शादी हुई है |…….. अरे शादी ही तो हुई है, कोई बडी बात है क्या ? इतना बडा अफसर है, शादी ही तो होनी थी मेरे बेटे की   |
हा-हा-हा-हा-……..|" और हसँते-हसँते एकाएक उनकी रुलाई फूठ पडी | लगभग चीखता हुआ वह शांति से बोला-- "बस……….| यही मिलना था शांति हमें फल|……..एक यही तो ऐसी खुशी थी, जिसके लिए सोचा था मै जी भर के नाचूँगा…….. |" -- शांति की और देखा उसने | उसकी आँखो से टप-टप आँसू फिर बहने लगे थे |
"शांति | किसलिए यह जीवन मिला मुझको, अपने अरमानों का गला घुटते देखने के लिए……. ?" - ऐसे में घर का वातावरण बहुत डरावना हो चुका था | आसमान का शोर जैसे थमा हुआ हो, उन्हें कुछ भी महसूस नहीं हो रहा था | आज भूल गए थे कि पिछले दस दिनों से वह निरन्तर उसके मनीआर्डर का इतंजार कर रह्र् थे | मनीआर्डर तो नही आया लेकिन उनके अरमानों का गला घोंटने का आर्डर जैसे इस पत्र के माध्यम से किसी ने भेज दिया हो |
एकाएक उसे महसूस हुआ वह सोचे ही जा रहा है, लेकिन प्रत्यक्ष में कुछ भी नहीं है | तब मन उसका लौट आया अपने वर्तमान में | शाम हो चुकी थी | दुकान पर ग्राहकों का आना-जाना शुरु हो गया था | वह अपने एक हाथ से उनकी आवश्यकता की वस्तुएँ जुटाने लगा| साधूराम अपने एक हाथ से जिस तेजी से कार्य करता था, वह ग्राहकों के लिए कौतूहल का विषय था | लेकिन साधूराम जानता था कि व्यक्ति में लग्न भाव हो तो, क्या कुछ नहीं किया जा सकता | शाम सात बजते ही दुकान बंद कर वह घर की ओर चल पडा |

Bikhre Kshun - written by Ashwani Kapoor