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"BIKHRE SHUN"
   
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(10) Naya Jeevan (१०) नया जीवन
 
written by
Ashwani Kapoor



 
नया जीवन
 

सपने उसे भी आते हैं लेकिन कुछ अलग तरह के | उनकी कड़ियाँ उनके कब के बीच चुके दिनों से नहीं जुडी होती , वह तो बीते कल से सम्बन्धित होते हैं | कुछ दूर नहीं जाना पडता उसे, निकट में ही कई बाते आ पुकारती हैं |  उन्हीं में उसका मन रमा है, उन्हीं में उसे अन्नंद मिलता है, वहीं उसके लिए जीवन की सुन्दर घडियाँ हैं | सुन्दर सपने उसके अपने आज के | उसके 'आज' में वह स्वयं खडा है, हंसता - मुस्कुराता... साथ में उसकी संगिनी | और दो छोटे - प्यारे बच्चे दीपक और मधु | एक घर है , बहुत बडा | उसकी बहुत पहले की कल्पनाओं जैसा | एक कार है, महानगर की मस्त ज़िन्दगी है, बोझिलता हर लेने वाला वातावरण भी... | और क्या चाहिए उसे |

कभी महसूस नहीं होता कि कुछ ऐसा कि कुछ ऐसा अब उसके पास नहीं है जो कभी उसका अपना है, जिसके लिए वह दूर है | जिसे वह अब कभी नहीं मिला | कभी भी तो उसने नहीं सोचा कि उसके परिवार का एक अंग उसके निकट है ही नहीं | परिवार...| वह मानता है सदा यही सोचता है कि परिवार है - क्योंकि बच्चे हैं, बच्चों का पिता है, बच्चों कि मां है | पति है, पत्त्नी है | रिश्तों की इस सीमा से आगे वह कभी नहीं बढा | शायद उसने कहीं पढ़ा ही नहीं था उसे किसी ने अभी तक बताया ही नहीं कि वह भी किसी का बच्चा है, किसी के परिवार का अंग ... | और वह उस परिवार से दूर है, अपने परिवार में लीन | दो परिवार अलग - अलग बने हैं, बीच कि कडी एक ही और झुक गई है, सभी - के - सभी विचार लुढकते हुए उसी कि ओर चले बाते हैं | कोई भी नीचे से उपर जाने का प्रयतन नहीं करता , कहीं साँस नहीं फूल जाए ...

 

सतीश की अवस्था अब चालीस बरस है | वह एक बहुत बडी फर्म का मालिक है | बीस हज़ार प्रतिमाह  की आमदनी है | उसे किसी भी प्रकार का कश्ट नहीं है | शारीर से वह हष्ट - पुष्ठे है | सुन्दर है | समाज में उसकी इज्ज़त है | यही दशा सुमिता की भी है |वह सतीश से दो बरस छोटी है | लेकिन अपने सुवस्थ - सुन्दर शरीर फूल की भांति खिले - चेहरे  के कारण पच्चीस - छब्बीस  वर्षियें नवयुवती लगती है | उसकी सखियाँ अक्सर उससे कहती हैं _ "सुमिता | सतीश और तुम्हारी जोडी वास्तव मई लाजवाब है | " सुमिता अपनी प्रशंसा सुन फूल कर कुप्पा हो जाती है और झट से सभी मित्रो को पार्टी के लिए आमन्त्रित कर देती है | सभी शामिल होते हैं | खूब रंगीला वातावरण होता है तब |

पति पतनी आठें पहर साथ रहते हैं | सुमिता सतीश की फर्म के कार्य - व्यापार में भी अपना योगदान देती है | नित्य सतीश के साथ ऑफिस जाती है, उसी के साथ लौटती है | ऑफिस के श्ररेरा में वह सतीश के निजी - सलाहकार  के रूप में कार्य करती है | अपनी पतनी को इतना चुस्त देखकर श्री खन्ना (सतीश के श्रव्सुर ) बहुत प्रसन्न हैं | सुमिता उनकी इकलोती सन्तान है उन्हें  पूर आशा है कि उनकी पुत्री उनकी मृत्यु के पशचात अपने परिवार के साथ - साथ अपनी माँ का भी ध्यान रखेगी | वह आजकल बीमार हैं |
दीपक अब मसूरी मैं  है | वह अभी छात्रावास मैं रहते हुए सातवी कक्षा में पढ़ रहा है | वह बहुत प्रवीर है | मधु बम्बई में ही अपने माँ बाप के पास रहती है | वह अभी नर्सरी मई पढ़ती है | उसके लिए सुमिता ने अलग से एक आया नियुक्त कर रखी है | वही उसकी देखभाल करती है| 
उसको खिलाना -पिलाना , नहलाना -धुलाना ,तैयार कर स्कूल भेजना,वहीं से लेकर आना,नित्य शाम को घुमाने ले जाना इत्यादि उसी का काम  है| 
एक रूप में मधु उसी की छत्र छाया में पल रही है |सतीश-सुमिता के पास उसपर दृष्टि रखने का भी समय नही  |

सुबह आठ बजे दोनों उठते हैं | मधु तब स्कूल जाने के लिए तैयार हो रही होती है | दोनों नित्ये कर्म से निवृत होने लगते हैं | तब मधु से उनकी शरेक      
 मुलाकात होती है | वह स्कूल के लिए प्रस्थान करने से पूर्व उनके कमरे मे आती है और 'बाय - बाय' कर चली जाती है | सतीश उस समय अपनी लाडली बेटी से प्यार करता है... मगर शरीक  | उसके गाल चूम कर  झट से कहता है - "ओ के | बाय स्वीटी |" 
  
दस बजे वे ऑफिस के लिए रवाना होते हैं | दिनभर ऑफिस  में व्यापारिक - काये  में लीन रहते हैं | दिन बीत जाता है तो घर के लिए प्रस्थान करते हैं |   
घर लौटकर वे कुछ देर विश्राम करते हैं | मधु उस समय 'आया' के साथ समुद्र के किनारे टहलने  गई होती है |  समुद्र उनके घर से केवल एक फर्लांग दूर है | ... साढे सात बजे वे क्लब जा पहुचते हैं | अपने सभी साथियों से मिलते हैं | हँसी - मज़ाक करते हुए ड्रिंक करते हैं | वहीं कभी ब्रिज, कभी तम्बोला, कभी रमी खेलते हैं | 'डांस  - फ्लोर' पर एक - दूसरे को अपनी बाहों  में समेत कर नृत्य करना उनकी क्लबचर्या का प्रमुख अंग है | रात्रि के ग्यारह बजे से लेकर एक बजे के मध्य वे घर लौटते हैं | रात का खाना क्लब मे ही खाकर आते हैं | ... मधु तब तक सो चुकी होती है |

अक्सर अपनी लाडली बेटी से उनकी मुलाकात छुट्टी के दिन होती है | छुट्टी का पूरा दिन मधु अपने मम्मी - पापा के संग बिताती है | वह दिन मनोरंजन में बीतता है | उस दिन सुबह के इस बजे वे लोग बिस्तर से उठते हैं | नहाने - धोने - तैयार होने में साढे ग्यारह बज जाते हैं | माह के पहले और तीसरे रविवार घर में  पार्टी होती है | पार्टी की तैयारी सुबह से आरम्भ हो जाती है | शाम के समय वे सब अपने मित्र - मेहमानों के साथ पार्टी का आनन्द उठाते हैं | पार्टी अक्सर रात के  दो बजे तक चलती रहती है | मधु को पार्टी अक्सर अच्छी नहीं लगती | बढ़ी उम्र के लोगों मे वह बच्ची कभी इधर जाती है, कभी उधर | उसे कोई अपना हमउम्र नहीं मिलता |

जिस दिन पार्टी मानाने का कार्यक्रम नहीं होता या उसके मम्मी - पापा ने कहीं नहीं जाना होता , उस दिन मधु को बहुत आनन्द आता है | उस दिन वे सब (सतीश -सुमिता - मधु ) कार में बैठकर बम्बई महानगरी के शोर से दूर कहीं पिकनिक मनाने चले जाते हैं | वहाँ दिनभर मधु अपने मम्मी - पापा के संग खेलती है | सतीश - सुमिता भी बच्चे बनकर उनके साथ खेलते हैं ... उसकी प्रत्येक बात बडे ध्यान से सुनते हैं |

शाम पाचँ बजे पिकनिक से लौटकर वे कुछ देर विश्राम करते हैं | तत्पष्चात 'टी वी' देखने बैठ जाते हैं | रविवार का दिन टेलीविज़न पर हिन्दी की फिल्म दिखाई जाती है | रात दस बजे तक फिल्म समाप्त होती है , तब रात को भोजन समाप्त  करके वे अपने कमरे में सोने चले जाते हैं |

मधु का सोने का कमरा सतीश - सुमिता के कमरे के साथ है | मधु अक्सर सुमिता के साथ सोने का प्रयतन करती है | वह माँ की ममता की भूखी  है न | सुमिता उसका दिल रखने के लिए उसके कमरे में चली जाती है और अपनी लाडली बेटी को थपकी देकर सुला देती है | तत्पशचात आया को उचित निर्देश देकर अपने कमरे में लौट आती है | उस समय सतीश उसी की प्रतीक्षा कर रहा होता है | वे कुछ बातें करते हैं , साथ ही प्यार  ...  कुछ ही श्ररों पश्चात उनकी बातें समाप्त हो जाती हैं और वे एक दुसरे के अस्तित्त्व में विलीन होकर सब - कुछ भूल जाते हैं ... |

सतीश को अपने माता पिता की याद कभी नहीं आती | उसका जीवन व्यस्त है | वह कभी अपने अतीत मे झाँकने का प्रयत्न नहीं करता | उनसे बिछुड़े उसे लगभग तेरह बरस हो चुके हैं ... मगर आज तक कभी भी उसके ह्रदय में त्रिवता से यह जिज्ञासा नहीं जन्मीं कि जाकर उनको मिल आए, उनकी दशा देख आए हाँ  साल में एकाध  - बार कभी याद भी आ जाती है, तो  अगले ही शर पिता के कहे कठोर शब्द उनके कानों में गूंजने लगते हैं | वे शब्द उसपर अधिक प्रभाव तो नहीं डाल पाते, लेकिन फिर भी ना जाने क्यों उसपर उनकी याद का अधिक प्रभाव नहीं पड़ता | यदि कभी मस्तिष्क उन स्म्र्तियें  केन्द्रित तभी हो जाता है तब वह उनसे दूर भागने का प्रयतन  करता है |... सोयम  को ऑफिस के किसी कार्य में व्यस्त करने का प्रयतन करता है ... यदि तब भी वे शर विस्मृत नहीं हो पाते तो सुमिता को साथ लेकर, ऑफिस के समय मे फिल्म देखने चला जाता है | यदि तब भी नहीं ... घर लौटकर शराब पीता है |

ऑफिस से लौटकर वे अभी अपने  कमरे में आकर लेते ही थे की नौकर ने  कमरे का द्वार खटखटाया |

"आ जाओ |"  - सुमिता ने कहा |

वह भीतर आ गया |उसके हाथ में एक पत्र था | उसे सुमिता की और बढ़ाते हुए बोला - "दोपहर की डाक से आया था |"
"हूँ ...| "  - सुमिता ने हाथ बढाकर उसके हाथ से पत्र ले लिया | नौकर कमरे से लौट गया | सुमिता ने पत्र - प्रेषक का नाम देखा तो प्रसन्न होकर बोली -  "दीपक का पत्र है |"

 "क्या लिखा है ? -सतीश ने पूछा | सुमिता ने तब एकाएक कुछ न कहा | पत्र पढने लगी |

"दीपक सोमवार को आ रहा है | सुमिता ने बताया |
"अरे हाँ |" जैसे सतीश को कुछ स्मर्रार  हो आया हो - "उसकी दशहरे की छुट्टियाँ हैं ... हम तो भूल गई थे |"

" हाँ |..., अब अपना इन्तजाम कर लीजिये ...|"  - तब सुमिता ने अर्थ्पूर ढंग से मुस्कुरा कर कहा |

 "क्या मतलब ...?"  - सतीश को उसकी बात पर आशचर्य हुआ |

"हर बार याद दिलाना पडता है...|"  -सुमिता ने जैसे उसे कुछ स्म्ररार करने का प्रयत्न किया |

"...ओ ...ह ... |"  - सतीश हस पडा - "...तो श्रीमती जी की छुट्टी |"

"श्रीमती जी  की  छुट्टी नहीं ... उनको छुट्टी चाहिए ...|" - सुमिता ने अपने पति के गाल पर एक चपत जमाते हुए कहा | सतीश ने उसका हाथ पकड लिया और हँसते हुए बोला - "एक ही बात है   |" 

"अच्छा ... तो मुझसे छुट्टी पाकर आपको प्रसन्नता होगी |" - सुमिता ने बनावटी क्रोध दिखाते हुए कहा |

"अ-र-रे | क्या कहती हो ? तुम्हारी छुट्टी हो गई तो मेरा क्या होगा ?" - और इतना कहकर उसने अपनी पत्नी  को आलिन्गंबध कर लिया | कुछ क्षण यूँ ही बीत गए | वे एक दूसरे से अलग हो गए | सुमिता अपननी साँस पर नियंत्रण कर घुसलखाने की ओर बढती हुई बोली - " अब चलना भी है की नहीं ...|"
 "हाँ - हाँ... क्यों नहीं |"  - सतीश भी उठ बैठा | वे दोनों तैयार होने लगे | कुछ देर पशचात कार मे बैठकर कल्ब की ओर चल दिए | कुछ दूर आगे जाने पर उन्हें आया के साथ घर लौटती मधु दिखाई दी | सुमिता ने सतीश को कार रोकने को कहा | तब सतीश ने पूछा - "क्या बात करनी है ?"
"तुम रोको तो |"
सतीश ने कार रोक दी | मधु ने देखा वह भाग कर उनके पास आ गई |सुमिता ने कार से उतरकर अपनी बेटी को उठा लिया और गाल चूमती हुई बोली - "तुम्हारा भैया आ रहा है,  मधु|"

"सच्च, मम्मी |" - मधु एकदम प्रसन्न हो गई |
"हाँ, सोमवार को |"
"तब बहुत मजा आएगा, मम्मी | खूब खेलेंगे भैया के साथ |" - मधु ने प्रसन्नता से ताली बजाते हुए कहा - "आप भी खेलेंगी न हमारे संग ?"
"क्यों नहीं ... |"  - फिर उसे गोद से उतारती हुई बोली - "शाबास | अब आया के साथ घर जाओ |"
"आप कहाँ जा रहे हैं मम्मी |"
"हम... हम तुम्हारे लिए गुडिया लेने जा रहे हैं ...
| "
"मम्मी | मैं भी चलूँगी |"  - मधु ने जिद की |

"बेटे | हमें डाक्टर के पास भी जाना है |" - सुमिता ने एक और बहाना गढ़  दिया, जिसे सुनकर मधु डर गई |वह डाक्टर के पास जाने से डरती थी |
"मेरे लिए अच्छी - सी गुडिया लाना |"
"बहुत अच्छी लाएँगे |" - सुमिता हस पड़ी  - "अच्छा अब जाओ |"
मधु ने आया की अँगुली थाम ली और दूसरे हाथ को हिलती हुई बोली - "बाय- बाय मम्मी |... बाय - बाय पापा |"
सतीश - सुमिता दोनों ने हाथ हिला दिए | सतीश ने कार आगे बढ़ा दी |

 दीपक आ गया |
मधु बहुत खुश हुई | उसे यही दिन बहुत प्रिय लगते थे | आया के बदले दिनभर उसे मम्मी और अपने बड़े भाई का साथ जो मिलता था | सुमिता ने अब ऑफिस जाना बंद कर रखा था | वह नित्यप्रति दीपक और मधु को लेकर कहीं - न - कहीं घूमने निकल जाती थी |कभी संग्राहलय , कभी आक्वेरियम (पानी के पौधे या जन्तुओं को रखने का कुंड) , कभी कहाँ - कभी कहाँ |

मधु को अपनी मम्मी का सही रूप सबसे अच्छा लगता है | आजकल हरदम वह यही सोचा करती थी कि उसकी मम्मी सदा घर क्यों नहीं रहती ? अब क्यों रहती हैं ? एक दिन उसने यूँ ही उससे पूछ लिया - "मम्मी | आप अब पापा के साथ ऑफिस क्यों नहीं जाती ?" 

अपनी पुत्री का प्रशन  सुनकर सुमिता उसके मुख की ओर देखने लगी | उसने शायद कभी सोचा भी न था कि उसकी नन्ही - सी पुत्री उससे ऐसा भी प्रशन भी कर सकती है | वह कुछ शर तक मधु के इसी प्रशन पर विचार करती रही फिर मुस्कुराकर उसे अपनी गोदी में खींचती हुई बोली - "क्यों मम्मी के साथ रहना तुम्हे अच्छा नहीं लगता ?"

"बहुत अच्छा लगता है, मम्मी |"
"में इसीलिए तो नहीं जाती कि तुम दोनों अकेले उबो नहीं |"
"अब कभी नहीं जाएंगी न ?" - बाल - सुलभ -  जिज्ञासा से मधु अपनी माँ से प्रशन  कर रही थी |

"जब तक तुम्हारा भैया यहाँ है, तब तक बिलकुल नहीं |"
"भैया कब तक रहेगा ?"
"एक महिना ...|"
"नहीं, मम्मी, मेरी तो पन्द्रह ही छुट्टियाँ हैं | पाँच बीत भी गई |"
- तभी दीपक बोल उठा |
"तुम्हारे पापा कहते हैं कि तुम दिवाली मना कर ही जाओगे |"
- सुमिता ने अपने पुत्र कि शंका का समाधान किया |
"सच्च मम्मी | पापा ने कहा है ?" - दीपक अपनी छुट्टी कि बात सुनकर प्रसन्न हो उठा |
तभी कमरे में आकर नौकर ने सूचना दी - "मेमसाब | बाहर एक मेमसाब आई हैं |"

"उनसे बैठने को कहो, मैं अभी आती हूँ | " - नौकर चला गया , तो सुमिता स्नेहयुक्त स्वर में अपने बच्चो बोली - "बच्चों | तुम खेलो | मैं बाहर अपनी सखी से दो बातें कर लूँ |"
यह कहकर सुमिता बैठक कि ओर चली गई | वे दोनों तब अकेले रह गए | मधु ने तब अपने भाई से पूछा - "भैया | तुम स्कूल मे अकेले रहते हो ?"
दीपक को अपनी  छोटी बहन के प्रश्न पर हँसी आ गई | हँसते हुए बोला - "पागल | वहाँ बहुत से लड़के रहते हैं |"
कुछ शरर रूककर उसने फिर पूछा - "तुम्हें मम्मी कि याद नहीं आती है ?"
"आती है |"
"पापा कि ?"
"आती है ?"
"फिर वहाँ क्यों जाते हो ?"
"पढने |"
"पढने तो स्कूल जाते हैं ...?"
"वहाँ स्कूल ही तो है |"
"स्कूल यहाँ भी तो है ?"
"वहाँ बहुत बड़ा है |"
"कितना बड़ा ...?"
"बहुत ...|"
"बहुत ...?"
"हाँ ...|"
"बड़ा स्कूल अच्छा होता है ?"
"हाँ ...|'
"क्यों ?"
"पापा कहते हैं |"
"मम्मी नहीं कहती ...?"
"मम्मी भी कहती है ...|"
"मैं भी वहाँ पडूँगी |"
"वहाँ लड़कियाँ नहीं पढती ...|"
"तुम तो पढते हो ...?"
"मैं कोई लड़की हूँ |"
"लड़के पढते हैं ?"
"हाँ ...|"
"लड़कियां कहाँ पढती हैं ?"

 

"उनका अलग स्कूल है |"
"मैं वहीँ पडूँगी |"
  - वे फिर चुप हो गए |
दिवाली आई | उन्होंने अपने घर को खूब सजाया | सभी सज -धज कर बाजार मिठाई - खिलौने खरीदने चल दिए | सतीश - सुमिता -दीपक - मधु ... सभी बाज़ार कि रौनक देखते हुए त्यौहार के लिए खरीदारी कर रहे थे | उन्होंने खाने के लिए मिठाई खरीदी, मधु के लिए खिलोने ख़रीदे, दीपक के लिए फुलझडियां - पटाके, रौशनी के लिए मोमबत्तियां , और पूजा के लिए ' लक्ष्मी ' का चित्र, केसर , धुप

  • अगरबत्ती  भी |एक दिवाली के दिन ही तो वे पूजा करते थे |

दोपहर को वे क्लब गए ..., दीपक - मधु भी | वहाँ सतीश - सुमिता ने तंबोला खेला, दोनों ने बियर पी, फिर घर लौट आए | अँधेरा फैलते ही उन्होंने मोमबत्तियां जला दी| तत्पश्चात दीपक और मधु के साथ मिलकर बच्चो कि भांति फुलझडियाँ जलाई , पटाखे छोडे |
तभी सुमिता के माता - पिता भी आ गए |सभी इकट्ठे हो गए | सतीश ने लक्ष्मी - पूजा के लिए सुऔल के सहारे लक्ष्मी का चित्र टिका दिया | और एक थाली मे धूप और अगरबत्ती जला दी | तब उसने अर्थपूर - मुद्रा में अपने श्रवसुर कि ओर देखा |उसका अर्थ समझकर उन्होंने कहा -
"भाई हर दिवाली पर कहते है , अगली बार इस बार भी यही |... "
उनकी बात सुनकर सुमिता, सुमिता कि माँ, सतीश, तीनों खिलखिलाकर हँस पड़े | बच्चें को कारण समझ न आया, लेकिन अपने बड़ों को हँसतें देखकर उन्होंने भी हँसना शुरू कर दिया | बात यह थी कि उनमे से किसी को आरती नहीं आती थी | सतीश ने बचपन में सीखी थी, लेकिन निरंतर अभ्यास न करने के कारण भूल गया था | तभी उसे अपने पिता कि याद हो आई | एकाएक उदासा हो गया | सोचने लगा - ' बाबूजी कितनी सुन्दर आरती करते थे |' - तभी उसके श्रवसुर ने उसकी तन्द्रा भंग कर दी | ओर न सोच सका - "अरे भाई, हाथ जोड़कर सभी कहो - जय राम जी की | आप हम पर कृपा करो | - बस | यही तो आरती का सार है |... बोलो , जय राम जी की |...

सभी ने हँसतें हुए कहा, "जय राम जी की |..."
बस ...|
सुबह के साथ बज रहे थे | उन दोनों की नींद खुल चुकी थी, मगर अभी भी वे अपने बिस्तर पर लेते हुए थे | दोनों विचार मग्न थे |कुछ परेशान थे | सुमिता कुछ अधिक परेशान थी | कुछ शर कमरे में यूँ ही शांति   छाई रही, तभी किसी ने कमरे का द्वार खटखटाया | शायद नौकर सुबह की चाय लेकर आया था |
"आ जाओ "
- सुमिता ने मौन भंग किया | नौकर द्वार खोलकर भीतर आ गया | उसके हाथ मे एक ट्रे थी | ट्रे मे दो प्याले, एक केतली, एक दूधदानी, एक शकरदानी और दो चम्मच रखी हुई थी |सुमिता की ओर पड़ी तिपाई पर ट्रे रखकर वह वापिस लौट गया | सुमिता उठ बैठी ओर चाय तैयार करने लगी |
"उठिये |"
- सतीस की ओर चाय का प्याला बढ़ाते हुए उसने कहा | वह झट से उठ बैठा | सुमिता के हाथ से प्याला लेकर चुस्कियाँ लेते  हुए चाय पीने लगा | सुमिता भी चाय पीने मे मग्न हो गई |
"न जाने कैसे होंगे, डैडी |"
-मौन भंग करते हुए सुमिता ने कहा | स्वर में चिंता  स्पश्टत: झलक रही थी |पिछले तीन दिनों से उसके पिता नर्सिंग होम में दाखिल थे | 
उन्हें एक साथ दो बार दिल का दौरा पड़ा था | एकाएक उनकी दशा अत्यन्त शोचनीय हो गई थी |
"अभी तैयार होकर चलते हैं |"
-चाय का घूँट भरते हुए सतीश ने कहा |
"वैसे आप बिलकुल लापरवाह हैं |"
"भला क्यों ?" - सतीश को आश्च्रया |
"रात वहीँ रह जाती तो क्या था ?"
-सुमिता ने शिकायत - भरे स्वर मे कहा |
"मम्मी ने ठहरने नहीं दिया |"
"उनकी बात ही क्या है |"
"वह आप तो वहीँ हैं |"
"तीन दिन से सोई नहीं | उनको आराम देना भी हमारा कर्तव्य है कि नहीं ?"
"लेकिन मैं ज़बरदस्ती तो कर नहीं सकता था | वह अपने हठ पर अड़ी रही |"
चाय का अन्तिम घूँट भर कर सतीश ने प्याला तिपाई पर रख दिया |"
"जब अपने सिर पर आ पडती है, तो मालूम पड जाता है |"
-सुमिता सतीश के प्रति शुभित - सी हो उठी थी |
"तो अब क्या मैं पराया हूँ ?"
- सतीश ने पूछा |
"अपने माँ - बाप अपने ही होते हैं |"
"सुमिता ...|"  - सतीश को कुछ क्रोध हो आया |
"मैं ठीक ही तो कह रही हूँ ...|"  - सुमिता की आखें भर आई  -
"डैडी मेरे हैं न तभी आपको नींद आ गई |"
"ऐसा था तो  तुम ही रह जाती |"
"दो को कहाँ रहने देते हैं ?"
- सुमिता की आखें बहने लगी थी |
"फिर मैं कैसे ठहर सकता था ? मम्मी तो अवश्य ही ठहरती |"
- सतीश ने शांत होकर उत्तर दिया | वह प्यार से सुमिता को समझाकर उसकी शिकायत दूर करना चाहता था |
"मर्द इधर - उधर घूम कर रात बिता लेते हैं |"
"क्या बच्चों जैसी बात करती हो तुम भी, सुमिता | व्यर्थ मे घूमना मुझे अच्छा नहीं लगता | डैडी की तबियत खराब हुई होती तो मम्मी ने अवश्य ही फोन कर दिया होता |"
"हाँ, यही सोचकर बच्चो को माँ - बाप के प्रति बेफिक्र रहकर अपने मे मस्त रहना चाहिए |" - सुमिता ने अपनी आखें पोछते हुए कहा |
न जाने क्यों सतीश मुस्कुरा उठा और अपने बिस्तर से खिसककर सुमिता के निकट आ गया | उसे अलिंगलबद्द करके, अपनी नाक उनकी नाक से रगड़ते हुए बोला - " तुम नाहक ही मुझसे नाराज़ हो गई ... अच्छा अब माफ़ कर दो ... आगे से कभी ऐसी गलती नहीं होगी |" - और फिर उसने सुमिता को कुछ कहने ही न  दिया | उसने उसके अंधेरों पर अपने अधर टिका दिये | सुमिता कसमसा कर रह गई |   

कुछ क्षणोंपरान्  सतीश ने उसे छोड़ दिया और उठते हुए बोला - "अब उठो जल्दी से तैयार हो जाओ |" - सुमिता तब उठकर घुसलखाने की ओर बढ गई | सतीश तब अखबार देखने लगा |
'... हाँ, यही सोचकर बच्चो को अपने माँ - बाप के प्रति बेफिक्र रहकर अपने मे मस्त रहना चाहिए ...|' - अखबार पर सतीश दृष्टि केन्द्रित थी , मगर उसके मस्तिस्क में बार - बार सुमिता के यही शब्द घूम रहे थे | उसे इन शब्दों का मर्म  स्वयं से प्रतीत हो रहा था | एकाएक वह चौंक पड़ा | सामने की सड़क  पुरतः  खाली थी | उसकी दृष्टि सामने के मकान कि ओर चली गई | वहाँ एक वृद्ध व्यक्क्ति कुर्सी पर बैठा काँच के गिलास मे चाय पी रहा था | सतीश जब भी खिड़की से इस ओर देखता था, उसे यह वृद्द बैठा दिखाई पड़ता था |

सोचने लगा - 'मिस्टर शर्मा के पिता उन्हीं के साथ रहते हैं,
दिनभर यहीं बैठे रहते हैं | पिछले रविवार मधु ने ही कहाँ था - डैडी | इन्हें ऑफिस नहीं जाना हो तो क्या ?... ' तब मैंने उससे कहा था कि  कि वह बूढ़े हैं | बूढ़े लोग काम नहीं करते | मगर तब मुझे बाबूजी कि याद नहीं आई | वह तो इनसे भी बूढ़े हो चुके होंगे | माँ भी ... ओह | माँ ... ' - उसने अपना सिर थाम लिया और कुर्सी पर बैठ गया - 'यूँ ही उन्हें भूले रहा | छोटी - सी बात के कारण | सौ  बार  झगणों होते रहते हैं | लेकिन ... लेकिन इतनी सरलता से सब कुछ समाप्त हो गया, आज एकाएक विश्वास नहीं आया ... आए भी तो कैसे ? कितने बरस बीत गए | कितने ? ओह | तेरह | इतनी जल्दी | कुछ पता ही नहीं लगा | हमें बम्बई आए छे : बरस हो गए | कितनी जल्दी | न जाने वे कैसे होंगे |...
माँ - बाबूजी |...
 तभी सुमिता घुसलखाने से बाहर निकल आई | सतीश को यूँ विचारमग्न देखकर उसने पूछा - "क्या सोच रहे हो ?"
"ऐ ...|"  - सतीश चौंका, नि :शवास लेते हुए उसने कहा - "न जाने वे कैसे होंगे ?"
"अब सोचना छोडिये |चलते है पता चल जाएगा |" - सुमिता ने समझा कि उसके पिता कि दशा के विषय मे सोच रहा है |
"मैं ... |" - सतीश ने कुछ कहना चाहा, लेकिन फिर चुप होकर घुसलखाने कि ओर बढ़ गया | सुमिता उसके मनोभावों कि थाह न ले पाई थी |
वे अस्पताल पहुचे तो देखा कि मम्मी प्राइवेट वार्ड के बाहर खडी व्यग्रता से टहल रही हैं |वह शायद उन्हीं कि प्रतीक्षा कर रही थी | कार से उतरकर सुमिता तेज़ी से उनके पास चली आई |
"डैडी कैसे हैं , मम्मी |" - सुमिता ने पूछा |
"उनकी दशा फिर खराब हो गई है | डाक्टर मुझे भी भीतर नहीं जाने दे रहे |" - मम्मी के स्वर मे करूणा थी |
तभी सतीश अपनी कार पार्क करके आ गया | सुमिता उसे देखते ही बोली - "डैडी कि तबीयत खराब है, जरा डाक्टर से पता कीजिये |"
हूँ ..., तुम लोग वेटिंग - रूम मे चलकर बैठो |" यह कहकर सतीश अपने श्रवसुर के कमरे कि ओर बढ गया | कमरे के दरवाज़े पर परदा लटक रहा था | सतीश ने धीरे - से भीतर झाँक  कर देखा | कमरे मे श्री खन्ना के इर्द - गिर्द तीन डाक्टर खड़े थे |एक डाक्टर उनपर झुका हुआ था | रह - रह कर वह नर्स को कुछ कहता | नर्स उसे लिखे जा रही थी | सतीश थोडा आगे और बढा, तब उसने देखा उन्हें आक्सीजन लगी हुई है | तभी एक डाक्टर ने नर्स से कुछ कहा | नर्स बाहर निकली तो उसने उसे सम्बोधित किया - "एक्सक्यूज़ मी, सिस्टर |" (श्रमा करना बहन |)

   
"यस ...?" (कहिए ...?) - नर्स ने रूककर उसकी ओर प्रशनवाचक - मुद्रा मे देखते हुए कहा |
"हाउ इज़ ही ...?" (वह कैसे है ?) - कमरे कि ओर उसने संकेत कर पूछा |
"वैरी सीरियस ... |" (अत्यन्त गम्भीर) - अपने शब्द कहकर नर्स ने एक द्रश्टी और उसके चेहरे पे डाली और फिर तेज़ी से आगे बढ़ गई | तभी सुमिता और मम्मी वहीँ आ गई | सुमिता ने पूछा - कुछ पता लगा ?"
"नर्स से पूछा था ...|"
- धीमे से कहा सतीश ने |
"क्या कहा उसने |"
- सुमिता कि दिल कि धड़कन बैठ गई थी |
"भगवान को स्मरढ़ करो |"
"भगवान ...|"
"हाँ बहुत गम्भीर दशा है उनकी |"
" मम्मी ...|"
- सुमिता मम्मी से चिपट गई |
"भगवान रक्षा करेंगे, सुमिता ...|"
- मम्मी ने सुमिता के सिर पर हाथ फेरते हुए कहा |
"आप लोग 'वेटिंग - रूम ' में ...|"
-अभी उसने अपनी बात पूरी  नहीं कि थी कि कमरे से चुपचाप तीनों डाक्टर बाहर निकल आए | सतीश ने एक नज़र उनके गम्भीर चेहरे पर डाली  और बोला - "डाक्टर |..."
तभी एक डाक्टर ने कहा -"सॉरी मिस्टर कपूर " - साथ ही उसने सतीश के कंधे को थपथपाया और अपने साथियों के संग अपने ऑफिस कि ओर बढ़ गया |
मम्मी चीख उठी |सुमिता भी 'डैडी - डैडी 'कर रोने लगी | तभी नर्स ने आकर कमरे का दरवाज़ा बंद कर दिया और उनसे चुप होने कि प्रार्थना करके चली गई | सतीश ने बड़ी कठिनाई से दोनों को नियन्त्रित किया और उन्हें सहारा दिए बाहर ले आया | 
"मम्मी | धैर्ये से काम लो |" - फिर सुमिता से बोला - "सुमिता       रो ओ मत | मम्मी को ढाढास बंधाओ ...तुम्हें टैक्सी किये देता हूँ , मम्मी को लेकर घर चली जाओ |"

 तब सुमिता ने द्रस्ती उठाकर उसकी ओर देखा ओर पूछा -
"आप ...?"
"मैं डैडी का शव लेकर आता हूँ |... तुम जाओ  |"
तब सतीश ने एक टैक्स मँगवाई और उन दोनों को बिठाकर घर की ओर रवाना कर दिया | स्वयं 'सुपरिटेन्देंत ' के कमरे की ओर चल पड़ा | घर पर उसके श्रवसुर के और उसके कई  मित्र इकठे हो चुके थे | सुमिता ने घर लौटते ही टेलीफोन द्वारा सभी को सूचित कर दिया था |
मधु स्कूल से लौटकर आई तो उसने देखा घर के सभी सदस्य रो रहे हैं | आया का हाथ झटक कर वह अपनी मम्मी के समीप चली आई | सुमिता के सम्मुख घुटनों के बल बैठकर, उसके कन्धों को पकड़कर उसने पूछा - " मम्मी | क्या हुआ ? आप क्यों रो रही हैं ?"
सुमिता ने सिसकते हुए अपनी नन्ही बेटी की ओर देखा और फिर उसे अपनी छाती से लगाकर फफक फफक कर रोने लगी | मधु को कारण समझ नहीं आया | वह अबोध बालिका भला क्या समझती | लेकिन माँ को इस भांति फफकते देखकर वह रोने लगी | सतीश ने यह देखा तो आया से बोला - "तुम मधु को बाहर ले जाओ | घंटे भर बाद आना |"

आया ने उसकी आज्ञा का पालन किया | आगे बढकर उसने मधु को सुमिता की बाहों से खींच लिया और अपनी गोदी में उठाए बाहर की ओर चल दी | मधु को लेकर समुन्द्र के किनारे आ गई | मधु का मन कुछ शांत हुआ तो आया से उसने पूछा - " आया मम्मी क्यों रोती थी ? नानी क्यों रोती थी ? डैडी कुयन उदास थे ?"
एक साथ मधु के प्रश्न  सुनकर आया कुछ शन तक असमंजस में पड़ी रही, फिर बोली - "तुम्हारे नाना जी की डैथ हो गई न तभी |"
"डेथ  क्या ?" - मधु को अभी  डैथ  का अर्थ समझ नहीं आया था |
"बहुत दूर चले गए |"
- आया ने उसे समझाने का प्रयतन किया |
"कहाँ ?"
"भगवान जी के पास |"
"भगवान कहाँ हैं ?"
"बहुत दूर |"
- आया ने उसे बताया |
"कितनी दूर ?"
"बहुत |"
"फिर सभी रो क्यों रहे थे ?"
"तुम्हारे नाना चले जो गए |"

"तो क्या हुआ ?फिर आ जाएंगे | इंग्लैंड भी तो गए थे, तब तो कोई नहीं रोया था |" - बाल मन मे एक नई बात उमड़ी |
"अब कभी नहीं लौटेंगे |"
- आया ने कहा |
"क्यों ?"
- मधु की जिज्ञासा बड़ी |"
"बस | ऐसा ही होता है |"
"क्यों ?"
- मधु को शायद अभी भी समझ नहीं आया था |
"में क्या जानूँ ?"
-आया भला और क्या कहती |
"अच्छा | फिर नानी साथ क्यों नहीं गई ? इंग्लैंड तो साथ गई थी |"
-एक नया प्रश्न कर डाला मधु ने |
"वह बीमार नहीं थी इसलिए |"
"जो बीमार होता है वही जाता है क्या भगवान के पास ?"
- उसने पूछा |
"हाँ ...|"
"क्यों ?" -फिर प्रश्न |
"वहां जाकर वह ठीक हो जाता है |"
- आया के उत्तर उसकी जिज्ञासा को जगाते जा रहे थे |
"सच्च | क्यों ?"
- मधु खुश हो गई | साथ ही उसने प्रश्न भी कर डाला |
"भगवान अच्छे होते हैं इसलिए |"
"भगवान अच्छे होते हैं ...?"

- मधु ने उसके शब्दों को दोहराकर पूछा |
"हाँ ... |"
"उनका घर भी ...|"
"बहुत अच्छा |"
"हमारे घर से भी ... ?"
"बेबी |सब घरों से अच्छा ... बहुत बड़ा |"
- आया थक गई थी |
"सच्च |... आया | फिर मैं वहां जाउँगी |चलो , मुझे ले चलो |"
- मधु ने ताली पीटकर कहा | और आया उसके शब्द सुनकर डर - सी गई | झट से उसने मधु को अपने अंक से लगा लिया और कहा - "चुप्प | अच्छे बच्चे वहां नहीं जाते |"
दो शर मधु चुप रही, उसने पुकारा - "आया ... |" - उसके मुख पर नए प्रश्न के भाव थे |
"क्या ?"
"अच्छे बच्चे वहाँ नहीं जाते ?"
"नहीं जाते |"
"गन्दे बच्चे जाते हैं ?"
"हाँ ...|"
"तो नाना जी गन्दे बच्चे थे ?"
आया का जी किया की वह अपना सिर पीट ले | लेकिन विवश थी |
एक क्षण उसने उत्तर नहीं दिया, फिर दूर समुन्द्र की ओर देखती हुई बोली - 
"बेबी | वह बीमार थे |"
- तभी उसने बात पलटने का प्रयत्न करते हुए कहा - " अरे | वो देखो, मधु |कितना बड़ा 'शिप' |"

 मधु ने आया के ईशारे पर दूर समुन्द्र के बीच अपनी दृष्टी फेंकी | एकाएक प्रसन्न होकर बोली - " हाँ, कितना बड़ा |" - लेकिन एकाएक फिर चुप हो गई | फिर शायद कोई नया प्रश्न उसके मस्तिष्क मई उमडा था | बोली - "आया ...|"
"नाना जी भगवान के पास किस पर बैठ कर गए हैं ?"

 

 "क्या ... ? "  - मधु के बाल - मस्तिस्क की  इस उपज को सुनकर आया का मुहँ खुला का खुला रह गया | एकाएक उसे कोई उत्तर नहीं सुझाई दिया | तब मधु ने पुन : प्रश्न किया - "इंग्लॅण्ड तो  'ऐअरोप्लेन' (हवाई जहाज़ ) पर बैठ कर गए थे, अब ... ?"
"अब ... | ... अब भी ऐअरोप्लेन पर बैठ कर गए है ... |"
- तभी उसकी दृष्टी अपनी दायीं ओर से आ रहे एक बूढ़े व्यक्ति और एक छोटे - से बच्चे पर पड़ी | बूढ़े व्यक्ति ने सफ़ेद धोती - कुर्ता पहन रखा था और बच्चे ने कर - कमीज़ | आया ने बात बनाई - "देखों कितना प्यारा बच्चा |"
" उसके साथ कौन है ?" - मधु बच्चे से अधिक उसके साथ चल रहे बूढ़े के प्रति उत्सुक हो उठी |
"उसका दादा होगा ...|"
"दादा क्या होता है ?"

" वो ... वो ग्रेंडफादर |"
" ग्रेंडफादर तो नाना होता है |"
" दादा भी होता है |"
- आया ने उसे समझने का प्रयत्न किया |
" दादा |"  - मधु ने क्षणभर सोचकर पूछा - "ये दादा कौन होता है ?"
"जैसे तुम्हारे पापा के पापा |"
"वो तो नाना जी हैं |"
- मधु बेचारी को क्या पता था |
" चल पगली | वो तो तुम्हारी मम्मी के पापा हैं |"
"तो पापा के पापा कोई और हैं ?"
- मधु ने आश्स्र्यकाकित - भावों से पूछा | उसे आज तक किसी ने यह नहीं बताया था की ग्रेंडफादर 'नाना' के साथ - साथ 'दादा' को भी कहते हैं | दादा कौन होता है ? - उसे तो यह ज्ञान ही नहीं था |
"हाँ, कोई और हैं |"
"कौन हैं ?"
"मुझे क्या पता ... |"  - वास्तव में ही आया इस तथ्य से अनभिज्ञे थी |
"क्यों नहीं पता ?"
"तुम्हारे पापा को पता होगा ?"
- आया ने कहा |
 "हाँ, पापा से ही पूछूंगी  |"
- आया की जिज्ञासा बढ़ी |
"अब घर चलो |"
"चलो चलते हैं |"
- दोनों घर की ओर लौट पड़ी |

घर लौटकर मधु ने देखा पापा नहीं थे, नानी नहीं थी ..., केवल मम्मी और उनकी तीन - चार सखियाँ शोकमग्न बैठी थी | घर मई उदासी छायी थी | मधु आया का हाथ छुडा अपनी मम्मी के समीप चली आई |सुमिता की ठुड्डी उठाकर, उसकी आँखों में झाँकते  हुए उसने कहा - "मम्मी आप उदास क्यों हैं ?"
सुमिता ने अपनी नन्हीं  बेटी की ओर देखा | मन को नियंत्रित कर मुस्कुराने का प्रयत्न करते हुए, उसे अपनी गोद में खींचती हुई स्नेहयुक्त स्वर में बोली - "मम्मी को कुछ नहीं हुआ बेटे  |"
" नहीं मम्मी मुझे सब पता है |"
"क्या ...?"  - सुमिता चौंकी |
" नाना जी भागवान के घर चले गए हैं | वह अब कभी नहीं आएँगे |"
मधु के मुख से यह बात सुनकर सुमिता ने आया की ओर देखा, फिर  जोर से उसे अपने वक्ष से लगाकर फूट -फूट कर रो पड़ी | तब उसकी एक सखी ने उसे ढाढस बँधाते हुए कहा - "अरे सुमिता |अब बस भी करो |धेर्य से काम लो | देखो, इस बच्ची का तो ख्याल करो, तुम्हे रोता देखकर यह भी रोने को है |" - और हुआ भी यही | मधु भी रोने लगी | तब सुमिता ने अपने आँसुओं को नियंत्रित कर मधु को चुप कराया और आया को दुसरे कमरे मे ले जाने को कहा| आया मधु को लेकर उसके कमरे मे चली गई |

                             *  *  *

सतीश, मम्मी और उनके मित्र तब भी श्री खन्ना का अन्तिम - संस्कार कर लौटे तो मधु आया के साथ अपने कमरे में खेल रही थी |
"तुम्हारे पापा आ गए |"  - आया ने बाहर के कमरे की ओर देखते हुए मधु को बताया |

"पूछूँ ...?"   - मधु ने आया से पूछा |
"अभी नहीं, अभी बहुत - से लोग हैं |"
"फिर कब ?"
"बाद में, जब पापा अकेले हो |"
"अच्छा ...|"
वह फिर आया के साथ खेलने में निमग्न हो गई | कुछ ही देर पश्चात सभी चले गए | तब आया ने कहा - सब चले गए |
"में मम्मी - पापा के पास जाऊं ?"
"क्या करोगी ?"

"मम्मी के पास बैठूंगी |"
"और ... |"
"पापा से पूछूँगी भी ...|"
"जाओ |"
मधु अपने कमरे से निकलकर बैठक की ओर बढ़ी |तभी उसने अपने पापा को दूसरे कमरे  में जाते हुए देखा |वह उसी ओर बढ़ गई |
सतीश ने उसे अपने पीछे - पीछे आया देखकर पूछा - "क्या बात है, मधु बेटे ?"
"पापा ...|"
"कहो ...?"  -  सतीश ने प्यार से उसकी ओर देखते हुए कहा |
"पापा | मेरे दादा जी कौन हैं ?"
"क्या ...|...|...|...| ...?"  - अपनी नन्ही -सी बेटी के मुख से  यह  प्रश्न सुनकर सतीश को एकाएक अपना सिर घूमता महसूस हुआ |
"आज 'सी शोर ' (समुन्द्र किनारे ) एक बच्चे के दादा जी देखे थे | वह बहुत अच्छे थे | मेरे दादा जी कौन हैं ?"
सतीश से एकाएक कोई उत्तर नहीं बन पड़ा |उसे यूँ मूक देखकर मधु ने पुन : पूछा - "बताइये न, पापा, कौन हैं मेरे दादा जी ?"
"मधु ... | मधु ...|  वो ... वो ... |"  - यह कहते हुए सतीश ने घुटनों के बल बैठकर अपनी बेटी को वक्ष से लगा लिया | आज सुबह से वह उदास था | साथ ही अपने श्रवसुर की म्रत्यु का शोक भी उसके अस्तित्व पर छाया हुआ था | आँसू उसकी आखों में घुमड़ ही रहे थे | क्षण में ही बह निकले | उन्हें मधु के कंधे से पोंछता हुआ बोला - "बेटे | वह बहुत दूर रहते हैं |'
"कहाँ पापा ?"
"बहुत दूर |"
"भगवान जी के घर ...|"
"मधु ... |" मधु के इस प्रश्न ने सतीश को झकझोर कर रख दिया | तब बोला - "नहीं बेटे, नहीं ..., ऐसा न कहो .... , वह अपने घर रहते हैं |"
"यहाँ क्यों नहीं आते, पापा ?"
"आएँगे, अब यहाँ भी आएँगे |"
- - सतीश ने स्वयं पर बड़ी कठिनाई से नियंत्रार किया हुआ था, जबकि उसका मन फूट - फूट कर रोने को कर रहा था |
"कब आएँगे | पहले तो कभी नहीं आए |"
"अब ... अब जल्द ही आएंगे ... कल ही उनकी चिट्ठी आई थी |"
"जल्दी कब ?"
"अगले ही सप्ताह ... |"
"सच्च, पापा?"  - मधु प्रसन्न हो उठी |
" हाँ ... |"
यह सुनकर मधु वहाँ रुकी नहीं | भागती हुई कमरे से निकल गई, आया के पास | उसे यह समाचार देने | और तब संयम का बाँध टूट गया | सतीश फफक फफक कर रो पड़ा |
तभी सुमिता वहाँ आई |उसने सतीश को यूँ बिलखते देखा तो समझी कि वह उसके पिता की म्रत्युं के शोक में रो रहा हैं | उसकी आखें भी भर आई | लेकिन अपने आँसुओं को पोंछती हुई वह उसके समीप बैठ गई और सतीश का मुख अपने हाथो मई लेकर बोली -

 "रोने से अब क्या होगा ? ... प्लीज़ | चुप हो जाओ | नहीं तो मैं भी रो दूँगी |  " - अपनी पत्नी के शब्द सुनकर सतीश ने उसकी ओर देखा | दोनों के नेत्र मिले | सतीश की आँखों में निरीह - भाव थे , करुणा थी | सुमिता की आँखों में केवल करुणा थी |सतीश सुमिता के मनोभावों की थाह ले पाने में समर्थ था, लेकिन सुमिता अपने पति के वास्तविक दुःख से अनभिज्ञ थी | अर्दंगिनी ने यही धारण कर लिया था कि जो दुःख उसे हैं, वही उसका दूसरा अंग महसूस कर तड़प रहा था | कभी - कभी अपने दुःख में खोकर किसी दूसरे के मनोभावों कि था पाना कितना कठिन हो जाता है | ... एकाएक सतीश सुमिता के वृक्ष  में सिर छिपाकर आद्र स्वर में बोला - " सुमिता | ... सुमिता | ये एकाएक
आज ... |"
"सतीश | प्लीज़, सतीश धेर्य से काम लो |"
- अपने पति के सिर को चुमते हुए सुमिता ने कहा
|
"सुमिता | क्या करूँ ? समझ नहीं आ रहा | न जाने वे कैसे होंगे ?"

"कौन ...?"
- सुमिता को एकाएक आशचर्य हुआ
"बाबूजी - माँ |"
"सतीश ... |" - सुमिता एकाएक चौंक पड़ी | उसे सतीश के दुःख का वास्तविक कारण समझ आ गया था |

"हाँ, सुमिता | एकाएक उनकी याद हो आई | कितने साल बीत गए उन्हें देखे | न जाने कैसे होंगे ... | हम कैसे हैं , सुमिता जो अपने में ही लीन रहे | उन्हें बिलकुल भुलाए रखा |" - सतीश पुन : फुक उठा |
"चुप हो जाओ न सतीश | रोने से क्या होगा ?"
लेकिन सतीश बिलखता रहा  ... बिलखता रहा |
सुमिता कि गोद में  सिर रखे वह छत कि ओर देख रहा था | विचारमग्न था |कमरे मई उदासी छाई हुई थी | कुछ  क्षणोंप्रांत उसने मौन भंग करते हुए कहा - "सुमिता | बात भी क्या हुई थी |"

सुमिता ने उसकी आँखों में झाँक कर देखा, लेकिन बोली कुछ नहीं | तब सतीश ने पुन : कहा - "एकाएक तो ऐसा नहीं हुआ था | धीरे - धीरे  सम्बन्ध बिगड़ते गए | मगर हमने प्रयत्न भी तो नहीं किया था उन्हें समझाने का ... उन्हें संतुष्ट रखने का |"  - वह चुप हो गया |
सुमिता के भावविहीन चेहरे को देखने लगा |

"हमने किया भी क्या था ?" - सुमिता न्र आहिस्ता से कहा |

"उनसे दूर भागने का प्रयत्न ... उन्हें अपनी सोसायटी के काबिल न मानने कि गलती | ... सुमिता, दोष हमारा ही था |"
तब सुमिता ने अर्थपूर्ण द्रष्टि  से उसकी ओर देखा |

"हाँ, सुमिता | आखिर हम क्यों नहीं समझे कि जिन्होनें हमें जन्म दिया, पाला पढ़ाया - लिखाया, वही हमारे सबसे अच्छे मित्र हैं | हम हर नए वातावरण में आकर मित्र ढूढा करते हैं | नए समाज में आकर नए मित्र चुना करते हैं ... लेकिन तब यह क्यों भूल जाते हैं कि माँ - बाप ने हमें जन्म दिया, हमें राह दिखाई ... उन्हें संतुष्ट कर अपना मित्र बना लेना हमारा प्रथम कर्तव्य हैं |..."
"... हम समझते थे कि वह हमारे समाज को समझ नहीं  सकेंगे | हमने उन्हें सामाजिक - घेरे से दूर रखा ... जबकि हमें चाहिए यह  था  कि हम उन्हें अपने समाज के मान - दण्डो से परिचित कराते | पहले - पहल वह मुझसे बहुत प्रसन्न रहा करते थे , मेरे बड़ा ऑफिसर बन जाने पर उन्हें बहुत गर्व था ..., लेकिन धीरे - धीरे जब उन्हें मेरी  दिनचर्या का एहसास हुआ ... जब उन्होंने स्वयं को मेरे जीवन से सर्वथा उपेक्षित पाया, तो वे क्षुब्ध  हो उठे | उनकी असंतुष्टि उत्त्रोतार्र   बढ़ने लगी | मेरे प्रति उनके मन में आक्रोश समां गया ..."

" हमने उन्हें वह सम्मान न दिया जो कि एक पुत्र को वास्तव में अपने माँ - बाप को देना चाहिए | हम अपने समाज के मान - मूल्यों में ही यदि उन्हें सम्मिलित कर लेते तो शायद कभी हमारे संबंधो के बीच दरार न उत्पन्न होती | माँ - बाप अपने बेटे की ख़ुशी को अपनी ख़ुशी समझते  हैं |यदि बेटा उन्हें अपनी ख़ुशी से दूर रखना चाहे तो उनके मन में नि : सन्देह ही असंतोष उत्पन्न होगा | आक्रोश सदा संबंधो में दरार उत्पन्न करता हैं | ... सोचो | सुमिता , हम यदि उन्हें अपने प्रत्येक  कार्य में साथी बनाते, जैसे तुम्हारे मात - पिता को बनाए रखा , तो वे हमसे नाराज़ क्यों होते | सुमिता | उन्हें हमारा समाज नहीं भाया - इसलिए  नहीं कि इसकी म्रयादाए  नहीं , इसलिए नहीं , कि वह बुरा हैं , बल्कि इसलिए कि उनके पुत्र, मैंने उनके प्रति अपने व्यवहार द्वारा यह प्रदर्शित किया कि वे इस समाज में शामिल महीन हो सकते | यदि में अपने कार्यों के लिए उनके विचार - विमर्श किया करता , बेशक करता , अपनी ही | यदि उन्हें भी पार्टियों में सम्मिलित  होने को कहता , यदि उन्हें भी अपने मित्रों में ऊँचा उठाने का प्रयत्न करता , उनकी सभी जिज्ञासाओं को शांति से तुश्त करता तो हमसे कभी नाराज़ नहीं होते | लेकिन मैंने किया क्या ?
उन्हें नाराज़ देखा तो क्षमा - निवेदन करने की अपेक्षा और नाराज़ हो उठा | एक गाली सुनकर, दो गालियाँ निकाल दी |"

सतीश कहे जा रहा था | सुमिता उसकी हर बात सुन रही थी | उसने फिर कहा  -  "सुमिता | माँ - बाबूजी का जीवन ही कठिन रहा है | उन्हें हसने - हँसाने  वाले साथी नहीं मिले थे | हमने भी उनके प्रति उपेक्षा बरती | हम उन्हें भूल कर अपने में मस्त रहे | न जाने वे कैसे अपने दिन व्यतीत कर रहे होंगे | हमें अपना जीवन कितना सरल महसूस होता हैं, क्यूंकि हमारे चारो ओर आनंदमयी शोर है | हमारे जीवन की निस्तब्धता में रौनक में ... कहीं भी निराशा नहीं , कभी हम अकेले नहीं पड़ते ... |  और उन्हें अपना जीवन कितना बोझिल प्रतीत होता होगा , क्योकि उनकी एकमात्र ख़ुशी तो मैं था | मैं ... | जैसे दीपक - मधु हमारे लिए | ... आज मधु ने याद दिला दिया , उधर डैडी की मौत से मन दुखी थी  - बस ...|"
"मधु ने ...?"
- सुमिता को आशचर्य हुआ |

"हाँ , उसी ने मुझसे अपने दादा के विषय में पूछा था |मुझे एकाएक सब स्मरण हो आया |सुबह ही मिस्टर शर्मा के पिता को देखकर उनकी याद हो आई थी | तब मुझे अपनी भूल का एहसास हुआ |समय के आवरण को चीर कर मेरा मस्तिष्क बहुत पीछे जाकर सब याद करने लगा | सब ...|
सभी बिखरे - क्षण  सजीव हो गए मेरे मस्तिष्क में ..."

"सुमिता | क्षण हैं तो क्षणिक लेकिन अमूल्य बहुत हैं | बिखरे - क्षण कभी लौट कर नहीं आते, लेकिन कभी - कभी हम आने वाले क्षणों की सहायता से उनसे तारतम्य सीपित कर लिया करते हैं | ऐसे में ही हमें अपनी भूल का एहसास हुआ करता हैं |"  - इतना ही कहकर सतीश उठ खड़ा हुआ | कमरे की खिड़की से समीप आकर बाहर की ओर देखने लगा | सामने वहीं, मिस्टर शर्मा के बूढ़े पिता बैठे कोई पत्रिका पढ़ रहे थे | उनकी ओर से दृष्टी घुमाकर उसने पुन : स्सुमिता से कहा  - "अब मुझे और देर नहीं करनी , सुमिता | मुझे अब शीग्र   ही माँ - बाबूजी कि लेने जाना होगा | कहीं क्षण इतने अधिक न बिखड जाए कि एक कड़ी भी न जुड़ सके |
सुमिता | अब मुझे माँ - बाबूजी को खोना नहीं ...|"
"न जाने वे अब ... |"
सुमिता कि शंका को समझकर झट से सतीश ने कहा - "नहीं - नहीं, सुमिता वे अवश्य ही कुशल होंगे | मेरा आत्मविश्वास यही कहता है | हाँ , मुझे देर नहीं करनी | अब मुझे अपने बिखरे - क्षण  समेटने हैं |"
इस पर सुमिता ने कुछ न कहा | वह चुपचाप अपने पति के मुख पर छाई आत्मविश्वास कि आभा को देखने लगी |

Bikhre Kshun - written by Ashwani Kapoor