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"BIKHRE SHUN"
   
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(2) Dincharya 2 (२) दिनचर्या २
 
written by
Ashwani Kapoor



 
दिनचर्या २
 

खन्ना-शहर की एक अंधेरी-संकरी गली के अन्तिम छोर पर साधू राम का घर था | दुकान से लगभग एक किलोमीटर दूर स्वच्छन्द वातावरण में सांस लेता हुआ, मन्द गति से  चलता हुआ वह गली के किनारे तक आ पहुँचा | दो क्षण के लिए ठिठका, फिर धीरे-धीरे कदम रखता हुआ आगे बढने लगा| गली के बीच तक पहुँचने पर वातावरण पूर्ण रुपेण परिवर्तन हो चुका था | गली के दोनों ओर बहती गंदी नाली से उठती घुटन भरी, बदबू दार वायु उसके नथुनों में घुसनें लगी थी | नवागन्तुक शायद ही वहाँ दो पल ठहर पाता | परन्तु साधू राम और उस समय गली के अन्य निवासी बरसों से यहाँ रहते अभ्यस्त हो चुके थे | जिसे ज्ञात है कि यहीं वह पैदा हुआ है, यही उसे मरना है, यहीं उसका जीवन है, वह इस गली की घिनौनी-घुटन से नहीं घबराता    इस वातावरण में उसे अपना दम घुटते नहीं महसूस होता | नर्क नर्क वासी के लिए स्वर्ग है | हल में जुते बैल को, तांगे में जुते घोडे को नित्य अनगनित चाबुक पडते हैं, मगर वह सब कुछ चुपचाप सह लेता है ………..   'उफ्फ' तक नहीं करता | शायद यही सोच कर कि उसका प्रयोग निर्माण कार्य में हो रहा है | या फिर इसलिए कि उसे ज्ञात है रोटी खानी है तो चाबुकों की मार सहनी होगी, गुलामी सहनी होगी, इच्छाओं को कब्र में दफनाना होगा | कोई और राह-थाह नहीं इन गुलामों के लिए जीने की | जानते हैं कि सिर्फ मौत ही उनको छुटकारा दिला सकती है | और मौत की इच्छा किसे …………?
जीवन है शिव-रूप | छोटा-सा, दुर्लभ| मिला है तो हँस कर बिताओ | मार भी पडेगी, फूल भी मिलेंगे | सब कुछ मिलेगा | खाना पडेगा, सहना पडेगा | किसी से बच नही सकते | आज दुखों से मुख मोड कर भागोगे तो कल भूल जाओगे सिख किसे कहते हैं | सुख पाने के लिए दुख भी सहने पडते हैं | सुख-दुख से आँख-मिचौली खेलना ही तो जीवन है |
भय के हथौडें की चोट खाकर साधू राम का मस्तिष्क सुन्न हुआ पडा था | जीवन के अन्तिम क्षणों की कल्पना करने के पश्चात उसे साँस लेने में भी कठिनाई महसूस हो रही थी | घर की चौखट पर उसने पग रखा ही था कि खाँसी के एक लम्बे दौर ने उस पर आक्रमण कर दिया | खाँसते-खाँसते उसकी बुरी दशा हो गई | शांति भीतर थी | आवज सुनकर बरामदे में आ गई | शांति की उम्र पैंसठ वर्ष की है | उसकी काया इतनी क्षीण पड चुकी है कि अस्सी बरस की बूढी लगती है | उसके सिर के बाल पक चुके हैं | चेहरे पर अनगनित झुर्रियाँ हैं | शरीर का माँस भी झुर्रीदार कांतिहीन बन चुका है | मुहँ भी दंतविहीन…….| आ गए ? " - मुख से नकलता स्वर भी क्षीण है |
"हाँ……… "  - खाँसी को कुछ मिलते ही साधू राम ने कहा |
"दवाई लेने गए थे ?" - पूछा शांति ने |
" ध्यान ही नहीं रहा…….. " - भावहीन मुख लिए साधू राम आँगन मे बिछी खाट पर बैठ चुका था |
"कैसा विचित्र जीवट के हैं आप | रात सारी खाँसते बीत जाती है और दवाई लेने का नाम नहीं लेते | इतनी भी चिन्ता काहे की कि सुध-बुध भूल चुके हो   | " -क्षीण-स्वर में एक दर्द था | मगर साधू राम ने कुछ जैसे सुना ही नहीं | वह अपनी सूनी-गहरी द्रिष्टि से आँगन को निहार रहा था | बाहर की टूटी-फूटी, अभेध्य दिवाल को अपनी उदास द्रष्टि से चीरकर कहीं दूर रख्ने का प्रयत्न कर रहा था | मगर उसका यह प्रयत्न सफल नही हो सकता था | उसकी द्रष्टि बार-बार भटक जाती थी और सूने आँगन का निरक्षण करने लगती थी | टूटे-फूटे जर्जर व्यवस्था में खडे घर को वह बडी नजर से धेखने लगता था | बिल्कुल छोटा-सा घर है उसका | दो कमरे हैं | रसोई घर है | गुसलखाना है | शौच के लिए भी स्थान है अलग एक कोने में आँगन के | इस घर में उसने अपना सम्पूर्ण जीवन व्यतीत किया है | नन्हा-सा था तो मामा-मामी ले आए थे | यहीं पला, पलकर बडा हुआ, यहीं रहते उसने जीवन के सभी रंग देखें इस घर के साथ उसका स्नेह का नाता है | यह घर उसके बचपन, उसके लडकपन, उसकी जवानी और उसके अब तक के जीवन की स्मर्तियाँ संजोए है | यहाँ बिताए दिनों के सभी चित्र इधर-उधर बनी इन पुरानी, टूटी-फूटी दिवालों में बिखरे पडे हैं, उन्हीं को चुन-चुन कर इकटठा करके साधू राम ने शांति को पुकारा - "शांति   |" उसकी वाणी में कंपन था |
"कहो……….|" - शांति को उसका यूँ पुकारना कुछ अजीब लगा |
"हम कितने अकेले हैं, शांति | कभी-कभी बहुत डर लगता है इस अकलेपन को देखकर और जब कभी ध्यान आता है अपने अंत का…….. हैं, शांति कौन देगा मुझे कंधा……..शांति, कौन मेरी चिता में अग्नि लगाएगा……..?" एक व्यर्थ के भय ने उसको जकड लिया था | उसे अपनी म्रत्यु आँखो के सम्मुख नाचती प्रतीत हो रही थी |
समझदार साधू राम के मुख से ऐसी बात सुनकर शांति  को आश्चर्य हुआ | वह बोली, " आज ये आपको क्या हो गया है ? क्यों बुरी बात मुँह से निकाल रहे हो ? भगवान मुझे ऐसा दिन दिखाने से पहले ही ऊपर उठा लेगा |" - उसकी वाणी में करुणा आ गई थी | साथ ही वह सोचने भी लगी थी, 'जग की सुईयाँ निरन्तर आगे बढती जा रही हैं | हम जग में आते हैं, आगे बढते हैं और निरन्तर गतिशील रहते हुए एकाएक अज्ञात में विलीन हो जाते हैं | गतिशीलता हमारा कर्तव्य है और अज्ञात होना हमारी इस स्रष्टि की परम्परा | तब परम्परा के प्रति निराशा क्यों ? उसे याद करके स्वयं को भयभीत करना, दूसरों को उस अंत का स्मरण कराना उचित तो नहीं | आज कुछ निराश से जान पडते हैं तभी ऐसा महसूस कर रहे हैं |
साधू राम ने शांति की बात नहीं सुनी, वह उसके भावों को भी न समझ सका | उसकी विचारशक्ति, उसकी श्रव्यशक्ति शायद सुन्न पड गई थी | वह केवल भयग्रस्त शब्द बोल पा रहा था, वह देख पा रहा था तो केवल एक सूना पथ, चिलचिलाती धूप, चार व्यक्तियों के कंधों पर लदी अर्थी और पीछे रोती-बिलबिलाती शांति स्वनिर्मित भूल-भुलैया में भटक रहा था……., वहीं भटकते बोला- "शांति | विधी के विधान भला कौन टाल सकता है ? जो होना है, सो होगा ही | शक्ति नहीं किसी में इतनी की इसको रोक ले | कौन जानता है कब मरना है |क्षण का भी भरोसा नहीं……….., भविष्य पुर्णत: अनिश्चित है, शांति |"
शांति ने साधू राम की बात सुनी | स्वर समझा | समझदार थी | जान गई सब कुछ भय-निराशा का किया-धरा है | जानती थी- सांत्वना से भय दूर हो सकता है | घंटे पर सीधी चोट मारने से ही झनझनाता स्वर उत्पन्न होता है | कुछ क्षण सोचकर बोली- "भय ने आपकी आत्मशक्ति, आपकी विचारशक्ति को नीचे दबाकर कुंठित कर दिया है | आप यूँ ही व्यर्थ सोचकर समय नष्ट कर रहे हैं | मरना तो एक दिन सभी ने है | जो निश्चित है उससे डर क्यों ? उसके विषय में चिंता कर समय खराब करने का क्या लाभ ? हमारा कर्तव्य तो अनिश्चिता के प्रति है | इस अनिश्चित जीवन का अंत तो एक न एक दिन होना ही है | कुछ पता नहीं कब क्या होगा, फिर ऐसी बातें सोचकर समय नष्ट करके हमें क्या मिलेगा?.........आज आपने ऐसा क्या देख-सुन लिया है जो मौत की रट लगाए हैं ? इसका ध्यान छोडिये अपने 'राम' को स्मरण कीजिए | जैसे अब तक व्यर्थ नीयता से तटस्थ रहकर जीवन बिता दिया है, वैसा ही शेष बीत जाए तो कितना अच्छा हो |"
अंधेरे में तनिक प्रकाश पाकर उसे कुछ चेतना आई | क्षणभर सोचकर उसने शांति से कहा- " आज अर्थी देखी एक जवान की…….. क्या करूँ मन हटता ही नही उधर से………    | पहले राजा याद आता रहा…….., रह-रह कर उसकी वह सूरत आँखो में घूमती रही; जिसे देखकर मेरी जबान को ताला लग गया था और आँखे पथरा गई थी……., और फिर शांति, सतीश याद हो आया | यूँ लगा एकाएक अर्थी में मेरी लाश है और जो यूँ ही लावारिस पडी है | कोई उसे कंधा देने वाला नही  | " -साधूराम ने अपनी बात खत्म की, तब तक उसकी आँखो से आँसू निकलकर उसके गालों तक आ गए थे |

साधूराम के स्वर ने, शब्दों के प्रवाह ने शांति के बदन में झुरझुरी उत्पन्न कर दी…….   , उसकी आँखो के सम्मुख काला पर्दा छा गया | अश्रु स्वयं ही प्रवाहित हो उठे | आद्र स्वर में बोली - " हाँ | ये आपको क्या हो गया है………., क्यों अपशब्द मुख से निकाल रहे हो ?"
"मैं सच कह रहा हूँ, शांति | मुझे अर्थी देखकर अपने अंत समय की याद आई थी | मैं सतीश को याद करने लगा था | वह हमसे दूर कहीं अपनी धुन में मस्त बैठा है | नहीं आएगा शायद अब कभी | ……..शांति | लगता है बहुत जरुरत महसूस होने लगती है उसकी | ………. और कोई है भी तो नहीं उसकी जगह लेने वाला | क्या गलत कह रहा हूँ मैं……..? "
भावुकता से लिपटकर साधूराम अपने ह्रदय में उमडी प्यास को निरन्तर बढाता जा रहा था | अश्रु बहाते उसने आँगन में बैठे अपने चारों ओर निराशा भरी द्रिष्टि डाली | लगा, सभी कुछ निराशा मयी है | जिस दिवाल के चित्र कभी उसे सांत्वना देते थे, वह आज धुंधले पडे थे | केवल दिख रही थी सपाट-सूनी, जगह-जगह से झडे पलस्तर के लिए दिवाल | कल्पना में कोई ऐसी ही खुरदरी वस्तु पर वह अपना काँपता हाथ फेरने लगा | उसे लगा, कोई मवादयुक्त फोडे को छू-छू कर वह एक नया दर्द उत्पन्न कर रहा है | उस दर्द की अनुभूति की कल्पना उसके शरीर को कंपकंपाने लगी |
साधूराम का सादा-सरल-सुन्दर जीवन कभी-कभी न जाने कहाँ विलुप्त हो जाता था | ऐसे में वह अपने जीवन के टूटे क्षणों में इतना लीन हो जाता था कि उसे इस बात का तनिक भी अहसास न होता कि वह वही साधू राम है जो अपने सम्पर्क में आने वाले मनुष्य को सदैव शांति पाठ पढाया करता है | साधू राम अक्सर एकांत के क्षणों में  किसी द्रष्य को देखकर विचार करने लगता, उसे अपने जीवन का प्रतीक मानकर कहीं दूर पहुँचकर सोचने लगता - आज उसने अर्थी को देखा, अपने अंत की कल्पना करने लगा | अपने भविष्य को अधंकारमयी मान, अंधेरे में कुछ खोजने की चेष्ठा करने लगा | निराशा की कडियाँ जुडती गयी और खीचंकर उसे अतीत के खंडहर में ले गई | बीते क्षण उसे स्मरण आने लगे , पुत्र की याद हो आई | सूने भविष्य से उसका सम्बन्ध जोड दिया और अतीत के सूनेपन की याद और, भविष्य के सूनेपन का एहसास उसके वर्तमान को निराशामयी बना गया | फलस्वरूप साधूराम की आँखो से आँसूओं की अविरल धारा बहने लगी……… 
मन उसका फिर से उसी घटना के विषय में सोचने लगा था फिर से - सतीश की शादी के विषय में - जब से एक बीज फूटा था उनके सम्बन्ध में एक आक्रोश के उत्पन्न होने का |
माँ के नाम आए पत्र को एक महीना हो चला था | लेकिन उन्होनें सतीश को एक भी शब्द नहीं लिखा था | इस बीच सतीश का भी पत्र नहीं आया था | साधूराम -शांति की दिनचर्या भी अस्त-व्यस्त हो चुकी थी | न साधूराम का दुकान पर मन लगता है और न शांति का घर के कार्यों और पूजा पाठ  में | दोनों हरदम खोये-खोये, उदास-उदास रहते थे | जानने वाले उनकी दशा देखकर हैरान थे | खुशी के बजाए वह अब मुँह पर एक गहरी निराशा की झलक लिए अपने में ही लीन रहने लगे थे ; ऐसी दशा देखकर उनकी दो-एक ने कारण पूछने की लेकिन न साधूराम के मुख से बात फूटी, न ही शांति के |
उस दिन साधूराम दुकान पर नहीं गया था | सुबह-सवरे से ही आँगन में बिछी खाट पर औँधे मुँह लेटा था | शांति ने दो-एक-बार उससे नहा-धोकर कर नाश्ता कर लेने को कहा, लेकिन- "अभी उठता हूँ |" कहकर साधूराम पुन: आँखे मूँद लेने की चेष्टा करता |
दस बजे गए | दरवाजे पर थाप पडी और 'डाकिया' -आवाज पडते ही साधूराम उठा बैठा | एक चिटठी दरवाजे के निकट फेंक कर डाकिया चला गया था | धीमे कदमों से साधूराम चिटठी उठा लेने को बढा | इकट चली आई थी |उसकी मुख-मुद्रा पर आज कोई खुशी नही थी जो पहले सतीश का पत्र आने पर एकाएक आ जाती थी | शांति भी उसके निकट चली आई थी | लेकिन वह गम्भीर थी| पत्र खोल्कर साधूराम ने पढना शुरु कर दिया | सतीश ने लिखा था –
"आदरणीय बाबू जी,
नमस्कार |
मैंने इससे पहले माँ के नाम एक पत्र लिखा था| महीने से उपर हो गया है, लेकिन अपने अभी तक कोई उत्तर नहीं दिया | मैं समझ् गया हूँ कि आप मुझ्से नाराज हैं | दुखी भी हैं शायद | लेकिन बाबू जी, यदि आप शांति से बैठकर विचार करें तो जान जाएँगें कि मैने कोई गलती नहीं की | हाँ , मैं इतना जरुर दोष मानता हूं कि मैं आपको समय से पहले कुछ नहीं बताया और आपकी इच्छा को पूरा नहीं कर सका | लेकिन मैं आपको कैसे कहूँ कि सुमिता से मेरा परिचय बहुत पुराना हो चुक था, कालेज में हम दोनों साथ थे और एकाएक एक परेशानी सामने आ गई थी, सोसाइटी में बदनाम होने से उचित समझा जो काम कल करना ही है, वह आज ही कर लेना उचित होगा   "
इतना ही पढकर साधू राम व्यंग्यपूर्ण स्वर में शांति से बोला- " सुन रही हो, बदनामी से बचने के लिए - शादी की है उसने   | समजती हो न कैसी बदनामी से बचने के लिए  ? - एक तरफ काबिल अफ्सर और दूसरी तरफ कितने बडे काम्  | शुक्र है भगवान का, जो दिल्ली में ही रहता है | ऐसा कुछ किसी के साथ यहाँ आ कर बैठता तो शायद चुल्लू भर पानी में डूबना पड जाता हमको  |- उसकी बात सुनकर शांति ने कुछ भी न कहा | तब कुछ देर रुककर साधू राम ने आगे पत्र पडना शुरु किया |
"लेकिन बाबू जी, मेरी पसन्द कोई गलत नहीं | आप जब सुमिता को देखोगे तो यही कहगें | सुमिता मेरे चीफ साहब की लडकी है | पढी-लिकी है और आज मैं जिस सोसाइटी का सदस्य हूँ उसमें वह मेरे साथ अपना हर कदम मिला कर चलने में सक्षम है |……. और बाबू जी, आप तो सदा मेरी खुशी के लिए कुछ भी करने को तैयार रहे हैं, फिर अब  मुझसे नाराज क्यों ? क्यों समझते हैं और यह क्यों मान बैठे हैं कि मैंने आपकी भावनाओं का गला घोंटा है | मैं आपको समय पर सूचित नहीं कर सका, आपकी राय नहीं ले सका इसके लिए मैं आपसे माफी माअँ चुका हूँ, अब फिर माँगता हूँ ; तब तो आपको नाराज नहीं होना चाहिए | मै खुश हूँ, तब क्या आपको खुश नहीं होना चाहिए……. ?"
पत्र इतना ही पढकर साधू राम की आँखे डबडबा आई थी | शांति की ओर देखते हुए बोला था - " लिखता है आप मेरी खुशी के लिए सब कुछ करते रहे, तब आज नाराज क्यों |…… सुन रही हो न, शांति, इतना भी नहीं समझ्ता कि हमने सोचा था  वह सब कुछ कहे ये अरमान खुद ही दब गए उसके इतना पाराया हो जाते देख | ………. हर घटना को बच्चों की बात समझ कर बिसरा देने को कहता है | जैसे जानता नहीं कि हम अब बूढे हो गए हैं | हमारा दिल अब कठोर नहीं रहा जो हर घात सह सके | हमारा मोम जैसा दिल है अब, अरमान ही अरमान हैं जिसमें शेष | वह भी टूट गए तो शेष क्या है, शांति, हमारे पास……… | एक जिन्दा लाश का बोझ ही तो……….|" तब सतीश को सम्बोधित करते हुए बोला - "तू ठीक कहता है बेटा, तू खुश है | भगवान से प्रार्थना है मेरी नित नई खुशियाँ तुझे मिलती रहें | लेकिन जानता है हमारे अरमानों को तूने कहाँ ला पटका है | तू भला अभी से अरमानों की कीमत क्या समझे | तेरा दिल अभी जवान है | " -साधू राम के आँसू जैसे स्वयं को रोके हुए थे, लेकिन शांति की आँखे फूट पडी | कुछ देर तक साधूराम पत्र आगे न पढ सका | मन जब ठहरा उसका और शांति ने सिसकना बंद कर उसकी ओर देखना शुरु किया तो वह पु:न पढने लगा -
"बाबू जी | यहाँ मुझे एक बडा-सा बंगला मिला हुआ है रहने के लिए | ऐसे में मैं आपको उस पुराने, टूटे-फुटे मकान में रहने के लिए नहीं कह सकता | आप मेरा पत्र मिलते ही दुकान-घर बंद करके मेरे पास दिल्ली चले आएं | यहाँ आपको किसी चीज की कमी महसूस नहीं होगी   |
"मुझे उम्मीद है मेरा ओपत्र मिलते ही आप मुझे अपने आने की तारीख लिखोगे | सुमिता आप दोनों को प्राणाम कहती है और आशा करती है आप अवश्य आएँगे |
आपका पुत्र
सतीश |"
पत्र समाप्त कर वह शांति को पुन: सम्बोधित करते हुए बोला- "तुमने सुना, शांति, यह घर पुराना हो चुका है | टूट-फूट गया है | अब इसका कोई मूल्य नहीं | इसे आकर वह देखना भी नहीं चहता | मैं तो सोचता था कि वह इसमें निखार लाएगा, कहेगा मेरा बचपन यहाँ बीता है | मेरे माँ बाप ने यहीं रहकर मुझे इतना बडा बनाया है | लेकिन शांति मैं भी कितना पागल हूँ | भूल जाता हूँ बार-बार कि बचपन का कभी कुछ मूल्य नहीं हुआ करता | बचपन, बडप्पन की रंगीनियाँ देखते ही, बिसर जाता है सबका | यहाँ उसका बचपन बीता है, लडकपन नही, जवानी नहीं | उसमें हमनें ही ऊँचेपन का अहसास जगाया था | अब देखें उसका ऊँचापन, बस और तो कुछ मिल नहीं सकता  |" - साधूराम सतीश के सामने, उसके विचारों के सामने स्वयं को आज उसके पत्र के माध्यम से बहुत छोटा पा रहा था | इस मकान के बारे में कहे गए सतीश के शब्द उसे जहर के कडवे घँऊट के समान लग रहे थे, जिन्हें अपने गले से नीचे उतार पान उसे कठिन महसूस हो रहा था |
तब तक शायद शांति अपने विचार कुछ बदल चुकी थी | बोली - " कैसी बात कर रहें हैं आप | उसने एक गलती कर दी तो उसके लिए बार-बार माफी मांग रहा है | जरा सोचो, यदि उसमें बडप्पन आ गया होता तो क्या वह इतने प्रेम से हमें अपने पास आ जाने का आग्रह करता ? और बडप्पन है भी तो हमें खुश होना चाहिए | तुन उसे बडा आदमी ही तो बनाना चाहते थे |
उसकी यह बात सुनकर साधू राम ने कहा- "उसे बडा आदमी बनाना चहता था- बडे आदर्शों वाला आदमी | बडप्पन अलग चीज है | उससे घंमड की बू आती है | अपने आपको अधिक समझदार मानने की गलती कर बैठा है तुम्हारा बेटा……… |"
"बेटा सिर्फ मेरा ही तो नहीं, आपका भी है | और आप बेकार में ऐसी बातें सोच कर अपना मन जला रहे हैं। जो होना था वह तो हो चुका और उसने माफी भी माँग ली है | अब हमें और जिद नही८ करनी चाकिए | दिल्ली चलकर बहू से तो मिल आना चाहिए | बेशक हम वहाँ रहे नहीं "- शांति ने अपनी लालसा जो एकाएक तीव्र हो उठी थी प्रकट कर दी साधू राम के सम्मुख | तब साधू राम ने जरा तीखे स्वर में कहा - "क्या कह रही हो, बही से मिल आना चाहिए ? क्यों ? कौन बडा है ? बहू या कि हम ? एक गलती वह कर बैठा है, दूस्री मैं कर बैठूँ और अपनी इज्जत बहू की आँखो में बिल्कुल घटा दूँ, यह मेरे बस की बात नहीं | बहू वह इस घर की बनी है | शादी सतीश ने अपनी मर्जी से कर ली है, यह भूल भी सकता हूँ ; लेकिन तभी जब वह बहू के साथ यहाँ हमारा आर्शीवाद लेने   |
साधूराम अपनी भावनाओं के बोझ से दबा पडा था | उसकी तमन्ना थी सब कुछ उन्हीं के अनुरूप करने की, लेकिन ऐसा नहीं हो पाया, इसिलीए जो न्ही भाव उसके मन में उभरता, वह उसे शांति के सम्मुख प्रकट कर देता | शांति को उसकी यह बात उचित प्रतीत हुई - "   तो लिख दो उसे, ले आए बहू को | तब उनके साथ ही चल पडेंगे………|"
"हाँ, लिख दूँगा | मालूम पड जाएगा तुम्हें कितने पानीं में है वह   | " - साधूराम का मन कुछ ठहर चुका था तब तक | उठकर वह दुकान की ओर चल दिया और शांति अपने घर के काम को निपटाने में लग गई |
सतीश का उत्तर जल्दी आ गया | उसने लिखा था, छुट्टी की कोशिश वह पिछले कई दिनों से कर रहा है | और महीने-पन्द्रह दिन की मिल जाए तो वह उनसे मिलने का और आगे कहीं कुछ दिन बिता आने का प्रोग्राम बनाएगा | लेकिन अब यदि छुट्टी न भी मिली तो वह उनसे मिलने शनिवार की शाम को आकर अगले दिन दोपहर को लौट आएगा | पत्र पढकर साधूराम-शांति के मन को थोडा सा ढाढस बंधा | कुछ देर पश्चात शांति ने कहा - " चलो अब मिल तो जाएगा | छुट्टी नहीं मिल रही उसे, पर बहू को तो कुछ काम नहीं है, कुछ दिन यहीं रह लेगी हमारे पास और फिर अगर कहा उसने तो साथ चले जाएँगे   |"
उसकी यह बात सुनकर साधूराम बोला- - "अभी आने तो दो उनको | जाने कैसी हो तुम्हारी बहू | तुम्हें अछी लगे भी या नहीं   , और वह बडे घर की लडकी यहाँ रहना पसन्द करे या नहीं  |"
"   बडे घर की लडकी है तो क्या हुआ, अब तो उसका घर यही है | और हम किसी से कम तो नहीं | इतना बडा अफसर है हमारा बेटा  |  सतीश को उसने अपनी मर्जी से ही पसन्द किया है | अब उसे हमारे जैसा ही बनना होगा  |" 
" तुम्हारे जैसा  | क्यों भूलती हो नए जमाने और हमारे जमाने के फर्क को | तुम अपने को बदल लो शांति अगर बहू से इतना प्यार हो गया है तुमको | पर भूल जाओ कि बहू उँचे घर में पलने के बाद आकर तुम्हारे इस छोटे से घर में रह कर तुम्हारे जैसी बन जाअेगी   | यह तो अपने पुत्र की बदौलत तुम्हें बडे घर की बहू मिली है | मेरा कहा मानो तो इस भर्म को निकाल दो अपने मन से | उसने तुम्हें या मुझे या इस घर के वातावरण को देखकर सतीश से विवाह नहीं किया, बल्कि सिर्फ सतीश को, उसके उँचे-उज्जवल भविषय को, समाज में बनने जा रहे उसके मान को देखकर ही उसे अपनाया है | वह सतीश के लिए है, इसलिए आग्रह ही न करना उससे यहाँ रहने का | ठुकरा दी उसने अगर तुम्हारी चाह तो व्यर्थ में आँसू बहाओगी…….   |" - साधूराम का स्वर शांत था, लेकिन उसकी आँखो में दूर कहीं निराशा की झलक स्पष्ट दिखाई पड रही थी | उसे अन्दाज था उँची सोसाइटी के मान-मूल्यों का |
उसकी यह बात सुन्कर शांति ने कहा- "तुम तो हर बात की कल्पना पहले से ही करने बैठ जाते हो, जैसे वह तुम्हारी देखी-परखी हो | कई लडकियाँ होती है जो कहीं भी अपने को ठीक कर लेती हैं |……… और मैं यह तो नही चाहती कि वह सदा हमारे साथ बँधी रहे | दो दिन इस घर में रह लेगी तो जान जाएगी हमारे विचारों को | फिर हमें ही तो चलकर रहना है उसके पास…….|"
"………तो शांति, तुम भी इस घर को छोड देना चाहती हो  |" - साधू राम जैसे निराश हो गया था शांति की बात सुनकर |
" मैनें ऐसा तो नहीं कहा……. | अपना घर कभी दूर हो सकता है क्या ? लेकिन सतीश जहँ रहे वह घर हमारा अपना नहीं ? हम यहाँ रहें या उसके पास इसमें फर्क ही क्या है ?.........फिर इस घर को बेच तो नहीं रहे हम और न ही वह ऐसा कोई आग्रह कर रहा है | मन जब करेगा, यहाँ आ सकोगे और क्या वह कभी यहाँ नहीं आएगा या पहले नहीं आता था ?...... "
तब साधू राम ने कहा - " यह तुम कह रही हो, जानकर भी कि वह इसे भूल जाना चाहता है - उसे यहाँ रहना बिल्कुल पसन्द नहीं | सिर्फ अप्नी चिठ्ठी में ही तो उसने यह नहीं लिखा, वह तो शुरु से ही तो कतराता रहा है यहाँ के माहौल से  |"
तब शांति ने और अधिक कल्पना क्षेत्र में उतरते हुए कहा-" और अगर वह तुम्हें एक अच्छा, बडा घर दे दे इसके बदले तब भी क्या तुम नहीं छोडोगो इस घर को ? "
" शांति भावनाओं में बहकर तुम ऐसा कह रही हो, पर यह मत भूलो कि अपने घर से दूर जाना संभव नहीं बन पाता कभी | भूल नहीं पाता कभी कोई पुराने घर को जहाँ अनेकों यादें छिपी पडी हों | पडौसी मे हरचंद को भूल गई क्या ? मजबूरी से घर बेच गया था, लेकिन क्या नई जगह जाकर इसे भूल पाया | उसके भटके कदम अक्सर इस गली के किनारे पर उसे ला खडा करते थे और वास्तिविक्ता का ध्यान कर आँसूओं की झडी उसके गालों पर खेलने लगती थी | आदमी कितनी भी दूर क्यों न हो जाए, अपने घर की याद उसे हमेशा सताती है और मैं इस याद में तडपना नहीं चाहता | यहां क्या दुख है हमको | पुत्र चिठ्ठी लिखता रहे, आकर मिलता रहे और अपनी खुशी में हमें शामिल करता रहे | हमें इससे ज्यादा और क्या चाहिए……… ?"
कल जो साधूराम मान गया था, कहता था बहू के इस घर में कदम रखने के बाद वह पुत्र के पास दिल्ली जाने की सोचेगा | आज जब सतीश उसे लेकर आ रहा था, तब साधूराम पुन: इस घर को अपना रागात्मक संबंध बताकर उससे दूर न होने की कह रहा था | कैसे विचित्र जीवट का बना हुआ था वह |पहले पल जो सोचता था, दूसरे पल उसे भूलकर फिर पुराने ढर् पर आ जाता था | पुत्र से बढकर उसे घर से प्यार था | क्या वास्तव में बंध जाता है घर के मोहजाल में प्राणी इतना कि उससे दूर जाने की कल्पना से भी कतराने लगता है ?
" तुममें यह परायापन उसके प्रति क्यों आ गया है एकाएक ? क्या वह हमारा पुत्र नहीं ? क्या उसका घर हमारा नहीं ?........  " - शांति ने फिर अपनी बात दोहराई |
" ……….शांति | सतीश को अब अपने लिए यादें बनानी हैं , लेकिन मेरी सभी यादें तो यहाँ पडी हैं | यहाँ बीत रही हर घडी मुझे कुछ न कुछ याद दिलाती रहती है | मैं क्या अपना सब कुछ यहीं बिखरा छोडकर उसकी यादें का सहारा बनूँ ? अब वक्त मेरा नही, उसका है | फर्ज उसका बनता है, मेरी यादों को और सुरक्षित बनाने का | पहले ये घर मेरा है, बाद में कोई दूसरा ही हो सकता है |……  इस घर को सुन्दर बना दे बस यही तमन्ना है | लेक्न यदि तुम भी ऐसे सोचने लगी तो लगता है सब कुछ अधूरा रह जाएगा |…….. "
- साधूराम भावनाओं में बह गया था | शांति ने देखा, वातावरण फिर पहले के दिनों की भाँति बोझिल बनने लगा है, तब वह बोली - " अभी तो हम यहीं हैं और वह अभी आया भी नहीं | कुछ होने से पहले यूँ ही क्यों सोचकर मेरा-अपना मन खराब कर रहे हो | अभी उसे आने तो दो……| "
" हाँ, आ लेने दो | देर ही कितनी है आने मं उसके  |" - और तब दोनों चुप हो गए |
दरवाजा खुला हुआ था | साधू राम शांति दोनों बाहर बरामदे में ही बैठे सतीश-सुमीता के आने की प्रतीक्षा कर रहे थे | शांति ने सुबह ही दोनों के लिए दोपहर का खाना तैयार करके रख छोडा था | लेकिन एक बजते ही साधू राम को भीख लग आई | तब उसके कहने पर शांति ने चुपचाप उसे खाना परोस दिया| एक बार भी नहीं कहा कि उसे कम-से-कम थोडी देर और प्रतीक्षा करनी चाहिए |
साधूराम ने खाना समाप्त करके शांति से कहा - "तुम भी खा लो अब   |"
" थोडी देर और देख लेती हूँ | " शांति इतना ही कहकर घुटने पर मुँह टिका कर बाहरी दरवाजे की ओर प्रतीक्षा भरी देइश्ति से देखने लगी | बैठे-बैठे तीन बज गए लेकिन सतीश अभी तक नहीं आया था | साधू राम उकता चुका था | वहीं बिछी खाट पर लेटते हुए शांति से बोला - " तुम खाना खा लो | अब वह आए भी तो रास्ते में खाना खाकर ही आएँगे….. |"
शांति ने कोई जवाब नहीं दिया परन्तु चुपचाप रसोईघर घर की ओर बड गैइ | लेकिन तभी दरवाजे पर किसी की थाप पडी | शांति तेजी से रसोईघर से निकलकर बाहर की ओर बढी | तब तक सतीश दरवाजा खोल चुका था |

"सतीश |  बेटा  | " - शांति खुशी से चिल्ला-सी पडी | तब तक सतीश भीतर आ  चुका था और पीछे-पीछे, आसमानी रंग की सिल्क की साडी बाँधे, सुमीता भी आ गई थी | सतीश ने झुककर माँ के चरण स्पर्श किए और सुमिता की ओर इशारा करते हुए बोला - " ये है माँ, तुम्हारी बहू |" तब सुमिता ने शांति की चरण व्न्दना की | सतीश तब तक साधू राम की ओर बढ चुका थ | धीमे से "बबू जी" कहकर उसने साधूराम के चरण स्पर्श किए और सुमिता को सम्बोधित करते हुए बोला - "सुमिता, ये बबू जी हैं |" - तब सुमिता आर्शीवाद लेने आगे बढी और साधूराम के चरणों में झुक गई | साधू राम ने कहा - "सौभाग्यवती रहो  |" - और कुछ भी न बोला |

" तुमने बहुत देर कर दी, बेटा  |" - शांति ने तब बडी व्यग्रता से पूछा |
"माँ, रास्ते में खराब हो गई थी  |" सतीश ने माँ के प्रश्न का उत्तर दिया | अभी वे सब बरामदे में ही खडे थे | सुमिता छुपी-छुपी नजरों से घर की दशा को देख रही थी | लेकिन जिस हेयपन की आशा साधू राम अपने इस घर के प्रति अपनी बहू से कर रहा था, वह कहीं भी सुमिता की नजरों में दिखाई नहीं पड रही थी | शायद सतीश ने पहले ही सुमिता को अपने माँ-बाप और इस घर की दशा से परीचित करवा दिया था |
"तुम कार पर आए हो  |" बच्चों जैसी खुशी के भाव अपने मुख पर लाती हुई शांति बोली- " तुमने अपनी ली है   ? "
"अरे, अभी कहाँ, माँ, यह तो सुमिता के पिता कैइ है | " -सतीश ने कहा और फिर एकाएक साधू राम की ओर, जो अभी भी चुपचाप किसी सोच में पडा था, देखकर बोला -"बाबू जी | मैं आ गया हूँ यहाँ आपकी बहू को लेकर, परन्तु लगता है अभी भी आप मुझसे नाराज हैं | "
परन्तु साधू राम जी को उसकी बात का उत्तर देने का अवसर ही नहीं मिला | शांति पहले ही बोल पडी- "तुम सब बाहर ही खडे रहोगे या भीतर भी चलोगे | ……… चलो, कमरे में चलो……..|"
तब सतीश कमरे की ओर बढा, उसके पीछे सुमिता, और साधू राम-शांति उसके पीछे | कमरे की दशा भी वैसी ही थी, जैसे उनकी बातों की सादगी से प्रतीत होती थी | सतीश को तो इसकी जानकारी थी, लेकिन सुमिता घर में प्रवेश करने से पहले केवल अनुमान ही लगा सकती थी और शायद घर की बाहरी दशा देखकर उसने जो अनुमान लगाया था, वह ठीक ही निकला था | एक तरफ दो कुर्सियाँ पडी थी पुरानी-सी, सामने दो चारपाईयाँ बिछी थी, जिन पर पुरानी चादर बिछाई हुई थी |              और एक किनारे पर एक छोटा-सा मेज पडा था | सही कमरा था जहाँ बाहर से आने वालों को बैठाने के काम में लाया जाता था | सतीश कोई मेहमान तो था नहीं, लेकिन सुमिता आज पहली बार इस घर में आई थी, इसलिए उसे एक मेहमान की नजर से ही देखा जा रहा था |
सतीश चारपाई पर बैठ गया और सुमिता को भी वहीं बैठने का इशारा करते हुए साधू राम से बोला- "आप भी बैठिए बाबू जी |"
तब शांति ने पूछा उनसे, "तुम खाना खाओगे न ? "
"नहीं माँ |" सतीश ने उत्तर दिया, "रास्ते में ही खा लिया था | हाँ, कुछ देर ठहर कर चाय देना |  अभी पानी पिला दो | "
सतीश के शब्दों से शांति को वही अपनापन महसूस हुआ, जो पहले होता था | सुमिता से न अभी तक किसी ने कोई बात करने की चेष्ठा की थी और न ही उसने अपनी नजरें उठाकर उनकी ओर देखा था | शांति के दिल में जो उल्लास था, उसके आने से पहले, उसकी बलाएं लाने का, उसकी आरती उतारने का, वह न जाने क्यों सुमिता को देखकर ठंडा पड गया था | ऐसा तो नहीं था कि सुमिता रूपवती नहीं थी |
वह सुन्दर थी, अति सुन्दर | लेकिन न जाने क्यों शांति उसे पुकारने में उससे बात करने में हिचक महसूस कर रही थी | उसमें अपने पन की थाह नहीं ले पाई थी अभी तक |
कुछ देर तक कमरे में चुप्पी छाई रही | तब सतीश ने साधू राम को सम्बोधित करते हुए कहा - "बाबू जी | आप चुप क्यों है बिल्कुल, और मुझे यह देखकर लगता है कि आप अभी तक नाराज हं मुझसे……. |"
तब साधू राम ने ठन्डी आह भरते हुए कहा- "बेटा, मैनें नाराज होकर क्या करना है | तुम अब समझदार हो, तुमने जो भी किया अच्छा ही किया होगा | जब मैं कुछ जानता ही नहीं तो कैसे अपनी राय दे सकता हूँ | बहू तुम्हारी देखी-परखी है, उसके माँ-बाप तुम्हारे जानकार हैं, तुम्हीं कह सकते हो सब कुछ मैं क्या कहूँ …….. | मेरा चुप रहना अच्छा है " - दो क्षण चुप रहकर सुमिता की ओर देखकर साधूराम ने फिर कहा - "पर तुम्हें यह अच्छा लगा आज कि किस खामोशी से इस घर की लक्ष्मी ने यहाँ कदम रखा | क्या यही तमन्ना पाल रखी थी हमने तुम्हारी शादी की बेटा……..   ?" तब सुमिता को सम्बोधित करते हुए उसने कहा -"तुम बुरा मत मानना, बेटी, मेरी किसी बात का | मैं तो तुम्हें देखकर इस बात का अन्दाज लगा सकता हूँ कि तुम मेरे बेटे की तुलना में हर दर्जे उसके समान हो | तुम्हारी जोडी बहुत सुन्दर है, और मेरी भगवान से यही प्रार्थना है कि तुम दोनों सदा सुखी रहो |…….. पर तुम्हीं कहो, यदि तुम ही अपने माँ-बाप को बताये बिना, किसी दूसरे शहर में, मेरे बेटे से विवाह कर घर बसा लेती तो क्या अच्छा लगता उन्हें ? आज जो सतीश वहाँ अपना स्थान बनाए है, तब क्या इतनी जल्दी उनमें घुल--मिल सकता   ? "

"पर ऐसा होता ही क्यों……..? ऐसी चोटें तो हम जैसे अनपढ-गंवार, छोटें आदमियों के भाग्य में लिखी हैं | बहुत भावनाएँ पाल लेते हैं हम लोग………., और कुछ होता जो नहीं पास समेट कर रखने के लिए………..| काश | मैं भी पढा-लिखा होता, बहुत बडा अफसर होता या किसी मिल का मालिक होता- जानता भी न होता भावनाओं को और तब शायद आज के दिन घर भर में खुशी मनाई जाती…….. " - दो आँसू साधू राम की आँखो से टपक पडे |
कहना कुछ सुमिता को था, लेकिन सतीश पहले ही बोल पडा- "बाबू जी | इतना कुछ तो मैंने नहीं किया जो आप भावनाओं में इस कदर बह गए हैं कि आपको मैं भी एक अजनबी लगने लगा हूँ | आप क्यों अपने को छोटा समझते हैं, छोटा तो मैं महसूस कर रहा हूँ स्वयं को यह देखकर कि आप मेरी किसी गलती को अब माफ करने से हिचकिचाने लगे हैं | मैं क्या अब आपके लिए बहुत बडा हो गया हूँ ? "

"यह तो तुम अपने से पूछो, बेटा | मैंने तो तुम्हें पहले ही कहा है कि तुम अब समझदार हो गए हो | किसी भी बात का निर्णय स्वयं कर सकते हो |" - बिल्कुल सपाट स्वर था साधू राम का |
"आप, बाबू जी, बिल्कुल एक अनजान भाव उपजा बैठे हैं मेरे प्रति अपने मन में | क्या मेरी खुशी आपकी नहीं ?   "

" सब कुछ मेरा अपना था  बेटा, लेकिन मेरी तमन्ना थी किसी को कहने की, 'आओ | इस घर में आओ | इस घर की हर चीज तुम्हारी है | हमारी हर खुशी तुम्हारी हैं |' - लेकिन बेटा, ऐसा कहने का अधिकार तुमने छीन लिया मुझसे | आज बहू को यह कहने की हिम्मत नहीं हो रही, बेटा | लगता है, अब वह कहगी, उसकी हर खुशी हमारी है | ………" - साधू राम भावुक हो चला था- "जो मेरे मन के अरमान थे इस घर की बहू के लिए, वह नहीं रहे | - एकाएक मर गए सभी | " तब सुमिता से बोला- " बेटी तुम्हें अच्छा लग रहा है आज का दिन | क्या ससुराल में ऐसे स्वागत की चाह पाल रखी थी तुमने………. ? " - फिर क्षण भर कुछ सोचकर उसने कहा -" लेकिन शायद मैं ही गलत हूँ …………. |" - आगे उसने कुछ नहीं कहा | मन में ही दबा गया जो भी कहना चाहता था | सतीश की आँखे भर आई थी और सुमिता, उसने देखा, उसका चेहरा इस कदर हो रहा था कि उसने जान लिया यदि दो शब्द भी और कह डाले तो वह फूट-फूट कर रो देगी | कोई अज्ञात-सा बंधन जकड चुका था उसे सुमिता की भावनाओं से भी अपनापन महसूस हो रहा था, इसीलिए नहीं बोला आगे कुछ |

उधर शांति इस वार्तालाप के दौरान कभी सतीश को देखती, क्भी साधूराम को और कभी सुमिता को | उसे पहली नजर में ही उपर से नीचे तक निहार कर शांति समझ गई थी कि वह इस समय चौथे महीने में जा रही है | विवाह को उनके अभी दो महीने भी नहीं हुए थे | तब मन ही मन शांति ने शुक्र मनाया कि उसने मौहल्ले में अभी तक सतीश की शादी का जिक्र नहीं किया | कहीं बता चुकी होती उन्हें और सबको उसके आने का पता होता तो बहू को देखकर कौन नहीं जान पाता इस बात को |

शांति ने सतीश की आँखो में आँसू देखे तो आगे बढकर अपने आँचल से उन्हें पोछते हुए, ममत्व भरे स्वर में बोली- "रोते क्यों हो उनकी बात पर | तुम्हारे पिता हैं, कुछ भी कहने का अधिकार है उन्हें  |    "

और तब शांति चाय बनाने रसोईघर की ओर चली गई | कमरे में चुप्पी छा गई |

कुछ देर तक वे यूँ ही चुप बैठे रहे | शांति चाय तैयार करके ले आई | साथ में खाने के लिए बिसकुट थे और उसके अपने हाथ की तैयार की हुई बेसन की मिठाई | सतीश उसके हाथ की बनी मिठाई बडे चाव से खाता था, इसीलिए सुबह उठते ही उसने सबसे पहला काम यही किया था |
साधूराम का मन कुछ ठीक हो चुका था -| चाय का घूट भरते हुए उसने पूछा - "छुट्टी मिली क्या..... ?
" जी , दस दिन की मिली है |  " -सतीश ने उत्तर दिया |
" तब तो रहोगे अभी.... | "
"..... | " - सतीश एकाएक अटकटा-सा गया -| एकाएक कुछ कहते न बना उससे -" जी वो ऐसा  है , बाबू जी, हम प्रोग्राम बना कर निकले है की कल ही हफ्ते भर के लिए कश्मीर चले जाएगे और लौटती बार आपको साथ लेते हुए दिल्ली चले जाएगे.... | "
" ओह..... | " -- कहकर हल्की- सी नजर डाली उसने शांति के चेहरे पर उसकी भाव-भंगिमा पढने के लिए | लेकिन वह चुपचाप बडी हसरत भरी नजरों से कभी सुमिता को देखती, कभी सतीश को और कभी उसे | जैसे चाह थी उसकी कहीं कोई फूट न पडे और उसकी ममता कभी उसे तडपाये नहीं | कुछ क्षनोप्रांत साधूराम ने कहा - " परन्तु तुमने यह कैसे सोच लिया की हम तुम्हारे साथ चल पडेंगे.... |" -साधूराम के शब्दों से जान पड़ता था कि पुन: आक्रोश उसमें उमडने लगे हैं | 
लेकिन सतीश उसके उन भावों से बेखबर बोला- " आपको यहाँ रहकर करना भी क्या है ?
दिल्ली में सब कुछ हैं | वहाँ आपको पूरा आराम मिलेगा.... | " 
 "आराम मिलेगा, ठीक है | लेकिन यह घर, यह दुकान, सब कुछ यहाँ का अपना मैं किसके हवाले करूँगा........?"
यह सुनकर सतीश ने कहा -"आप सभी तो इसे बंद कर चल पडिए, फिर समय मिलते ही मैं आपको साथ ले कर यहाँ आ जाऊँगा और एक-दो दिन में सब बेच जाएँगे......| "
"क्या...... ? क्या कहा तुमने......|" -साधूराम यह सुनकर एकाएक उग्र हो उठा - "ये तुम कह रहे हो ? क्या कमी पड़ी है तुमको या की में भूखों मर रहा हूँ जो इस मकान  को बेचने की सोच ली तुमने ?..... " -कुछ देर कमरे में इधर-उधर बड़ी भावनामयी दृष्टि से देखता रहा वह, फिर बोला -"मुझे माँ-बाप का जिन्होनें प्यार दिया, उस मामा-मामी की यादें से भरे इस घर को मैं बेच दूँ | एक दुकान देकर जिस मामा ने मुझे हथकते  में एक नया साहस पैदा किया था, उसकी दी वही दुकान बेच देने की सोचूँ  |    
- धिक्कार  है मुझ पर | ....... ठीक है , तुम्हें मैं बचपन से बड़ा अफसर बनाना चाहता था, पर इसका मतलब नहीं कि तुम अपनी अफसरी में एकदम इतने ऊँचे उठकर सोचने लगे कि अपने सामने तुम्हें माँ-बाप, उनकी हर चीज छोटी लगने लगे ......|"
तब सतीश ने बड़े शांत स्वर में कहा - बाबूजी | मैंने आपके सम्मान में तो ऎसी कोई बात नहीं कि और अगर आपको ऐसा महसूस होता है कि मेरे साथ चलकर रहने से आपकी इज्जत घटेगी और आपकी भावनाओं को चोट पहुँचेगी, तो बेशक आप यहीं रहें | मैं पुन: कभी आपसे आग्रह नहीं करूँगा | लेकिन बाबू जी मैं यह महसूस कर चूका हूँ कि अब आपके मन में मेरे लिए वह प्यार नहीं रहा, जो पहले हुआ करता था | क्या मेरा गुनाह इतना बड़ा है बाबू जी, कि जिसे आप कभी माफ़ नहीं करेंगे ? "   
  
तब साधू राम रो पड़ा था फूट-फूट कर | सुमिता-सतीश, दोनों उसके एकाएक इतने भावावेग में बह जाने से डर गए थे | कुछ कहते भी न बना एकदम उनसे | चाय के प्याले आधे भरे यूँ ही पड़े रह गए थे | सब का ध्यान साधू राम की ओर लगा हुआ था |  कुछ देर बाद साधो राम का रोना थमा तो सतीश ने कहा - " बाबू जी | यदि आपको इतने ही दुखी होना था मेरे आने पर, तो मुझे लिख देते, मैं आता ही नहीं |" -सतीश कि आँखें पुन: भर आई थी |
तब शांति ने कहा - "और तेरे न आने का जो दुःख हमने पल लेना था, कौन दूर करता बेटा ? ऐसे कहेगा तो बेटा, तेरे बिना तडपने के हमारे पास क्या रहेगा ?" फिर एक क्षण साधो राम की और देखकर पुन: उससे बोली -" तू इनकी भावनाओं को पढ़ नहीं पाया बेटा | अपना कोई मेरे-तेरे सिवाए कौन है अब इनका | मैं तो बंधी हूँ इन संग इस तरह कि साँस भी अकेले  नहीं ले सकती | और तेरे साथ इन्होंने अपनी साड़ी इच्छाएँ ,   अपने सारे अरमान बाँध रखे हैं | कुछ ऐसा यदि हो जाए जिसकी कल्पना न कि हो, तो मन एकाएक टूट-सा जान पड़ता है कभी-कभी | ऐसा ही हुआ है इन संग | समझते भलते कुछ देर तो लगेगी ही.......|"  
तब सतीश ने साधो राम से कहा था - " बाबू जी | मैं जानता हूँ आपको दुःख पहुँचा, लेकिन अब क्या यह उचित रहेगा कि उसी भावना कि रु में बहाकर आप आगे के सब दिन भी यूँ ही गुजार दें |  अब सब भूलकर बाबू जी, हँस कर आने वाले दिन बिताने की कोशिश कीजिए....| अपना हठ छोडिए और दिल्ली मेरे पास रहने की तैयारी  कीजिए | यदि मन न लगा वहाँ आपका तो लौट आइएगा | यह घर कहीं जा तो नहीं रहा.....| आप कहते हैं तो मैं कश्मीर भी नहीं जाता | सुबह ही दिल्ली लौट चलते हैं ....|"
सतीश के ये शब्द सुनकर साधो राम का मन हच हल्का पद गया था | धीमे से बोला - " तुम क्यों अपना प्रोग्राम ख़राब करते हो | जाओ घूम आओ, लौटती  बार हमें ले जाना साथ ही | "  
और तब न केवल सतीश के चेहरे पर मुस्कान उभरी, बल्कि सुमिता और शांति भी प्रसन्न हो उठी ......| 

Bikhre Kshun - written by Ashwani Kapoor